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आचार्य श्रीराम किंकर जी >> चमत्कार को नमस्कार

चमत्कार को नमस्कार

सुरेश सोमपुरा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :230
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9685
आईएसबीएन :9781613014318

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यह रोमांच-कथा केवल रोमांच-कथा नहीं। यह तो एक ऐसी कथा है कि जैसी कथा कोई और है ही नहीं। सम्पूर्ण भारतीय साहित्य में नहीं। यह विचित्र कथा केवल विचित्र कथा नहीं। यह सत्य कथा केवल सत्य कथा नहीं।

''इससे ठीक विपरीत स्थिति सुकर्मी के साथ देखोगे। सुकर्मी का दुःख झूठा और सुख सच्चा होता है। सुकर्मी अपनी नजर में गिरा हुआ नहीं होता। समाज की नजर में भी उसका स्थान ऊँचा होता है। सुकर्मियों की आर्थिक उपलब्धियाँ अवश्य सीमित रहती हैं, किन्तु इसका मूल कारण यह है कि धन-दौलत की निरर्थकता को उन्होंने शुरू से पहचाना होता है। इसीलिए न वे धन-दौलत के पीछे जाते हैं और न धन-दौलत ही उनके पीछे आती है। सुकर्मियों का मूल्यांकन हमें कभी उनकी आर्थिक उपलब्धियों पर से नहीं करना चाहिए। महात्मा गाँधी कितने बड़े सुकर्मी थे, किन्तु उनकी आर्थिक उपलब्धियाँ क्या थीं? चरखे, चश्मे, धोती, घड़ी और पादुकाओं के सिवा उनकी सम्पत्ति ही क्या थी? तो क्या यह मान लें कि महात्मा गाँधी को उनके सुकर्मों की सजा मिल रही थी? नहीं! वह अपनी नजरों में ऊँचे थे, दुनिया की नजरों में ऊँचे थे। मैंने बार-बार कहा है, 'अपने-आपको पहचानो।' यानी, खुद का मूल्यांकन करके देखो। अगर तुम खुद की नजर में गिरे हुए हो, तो सुखी कैसे हो? अगर खुद की नजर में तुम ऊँचे हो, तो दुःखी कैसे हो?'

० ०

सदानन्द और रंजना की आत्म-हत्या ने पुलिस-केस बना दिया था। उससे निबटते हुए सभी ने तीव्र ग्लानि अनुभव की।

रात को गुरुदेव ने मुझे एक ऐसा आदेश दिया, जिसके लिए मैं कतई तैयार नहीं था।

मुझे बुलाकर वह बोले, सुरेश! तुम अपने घर वापस चले जाओ।'

मैं उनकी ओर स्तब्धता से देखता रह गया। किसी तरह इतना ही बोल सका  ''गुरुदेव! वापस जाने की मेरी इच्छा नहीं है।''

''जिद न करो, सुरेश! '' - गुरुदेव बोले, ''मैंने तुम्हें सिद्धियाँ देने की सोची थी। तुम्हें विख्यात संन्यासी बना देने का सपना मैंने देखा था, किन्तु... किसी भी सपने के साथ मैं केवल इसलिए नहीं चिपकना चाहता कि वह मेरा सपना है। जिस तरह कोई वैज्ञानिक अपने ही खोजे सत्य को झुठलाकर, नये-नये प्रयोग कर नये-नये सत्य प्राप्त करता रहता है, उसी तरह मैंने भी अपनी मान्यताओं को, अपने सपनों को, हमेशा परिष्कृत करना चाहा है। सुरेश! काफी सोचने पर मुझे ऐसा लगता है कि संन्यास का मार्ग तुम्हारे लिए श्रेष्ठ नहीं है। संन्यास में पलायन है कायरता है। ससार तुम्हें बुला रहा है। तुम्हें अपने कर्त्तव्य से दूर भागने की जरूरत नहीं। वापस चले जाओ। तुम्हारा घरबार तुम्हें पुकार रहा है।''

''किन्तु गुरुदेव!' मैंने थरथराकर कहा, ''जिस उद्देश्य से मैंने घरबार छोडा.... वह अभी पूरा कहाँ हुआ है?''

''सुरेश! यदि तुम केवल चमत्कारपूर्ण सिद्धियों के फेर में हो, तो भी.... एक बात तुम्हें स्वीकार करनी ही होगी....।''

गुरुदेव कहते-कहते रुक गये। मेरी धडकन बढ़ गई। मुझ पर टिकी उनकी दृष्टि में जो कठोरता झलक रही थी, उसका अर्थ सहसा मैं समझ नहीं पा रहा था; वह कठोरता स्नेह की हो सकती थी और क्रोध की भी....।

 

० ० ०

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