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आचार्य श्रीराम किंकर जी >> चमत्कार को नमस्कार

चमत्कार को नमस्कार

सुरेश सोमपुरा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :230
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9685
आईएसबीएन :9781613014318

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यह रोमांच-कथा केवल रोमांच-कथा नहीं। यह तो एक ऐसी कथा है कि जैसी कथा कोई और है ही नहीं। सम्पूर्ण भारतीय साहित्य में नहीं। यह विचित्र कथा केवल विचित्र कथा नहीं। यह सत्य कथा केवल सत्य कथा नहीं।

गुरुदेव ने केवल इतना कहा, कायर, मनोबल-विहीन... दोनों....।''

० ० 

गुरुदेव श्री चैतन्यानन्द जी की पीठ का घाव काफी भर गया था, किन्तु उनका स्वास्थ्य दिनोंदिन गिरता जा रहा था।

डाँक्टर ने सख्त आदेश दिया कि अब गुरुदेव से मिलने की इजाजत किसी को न दी जाये।

दोपहर को गुरुदेव ने मुझे और दीदी को बुलाकर कहा, ''मेरा अन्त होने में विलम्ब नहीं है..........।''

उनकी नजर मुझ पर ठहर गई, 'तुम्हारा और मेरा साथ अब थोड़ा-सा ही शेष है। तुम्हें जितना देना चाहता था. उतना दे नहीं सका हूँ।'

'गुरुदेव!' मैंने भीगे स्वर में कहा, 'आपने जितना दिया है, वह भी अमूल्य है।'  

''तुम्हारे मन में जो भी प्रश्न एवं आशंकाएँ हों, उनका निवारण कर लो। मुझसे जैसा बन पड़ेगा, बताऊँगा।' और गुरुदेव हँस पड़े, 'ऐसा अवसर फिर न मिलेगा, सुरेश! क्योंकि मैं दुबारा जन्म लेने वाला नहीं हूँ।'

दीदी की आँखें कठोर हो गई थीं।

मैं द्रवित होने लगा था। इस मनोभाव को छिपाने का मैंने अधिकतम प्रयास किया। मुझे मालूम था कि मुझसे और अम्बिका दीदी से किसी भी प्रकार की भाबुकता की आशा गुरुदेव नहीं रखते थे।

मैंने हौले से पूछा, ''गुरुदेव! संसार में हम देखते हैं कि बुरे कर्म करने वाले मजे में हैं, जबकि सत्कर्मी तड़प रहे हैं। इससे आपकी यह मान्यता असत्य लगने लगती है कि कर्मों का फल हमें इसी जन्म में, इसी संसार में मिल जाता है। आपका क्या स्पष्टीकरण है?''

''तुमने अच्छा प्रश्न पूछा।'' गुरुदेव बोले, ''मोटेतौर पर हम यह मानते हैं कि जो बुरे कर्म करें, उन्हें दो जून रोटी भी नहीं मिलनी चाहिए और जो अच्छे कर्म करें, वे बडे-बड़े बंगलों में रहें, कारों में घूमें। सुख और दुःख को हम आर्थिक उपलब्धियों या अभावों के साथ सीधा जोड देते हैं। यह अनुचित है। जो कुकर्म करते हैं. उनके मन में कभी झाँककर देखोगे, तो पाओगे कि वे तरह-तरह की आशंकाओं, कुशंकाओं से घिरे हुए हैं। क्या कुकर्मियों को मालूम नहीं होता कि वे कुकर्मी हैं? नहीं, सुरेश! बे इतने अनजान नहीं होते। उन्हें अच्छी तरह मालूम रहता है कि वे कुकर्मी हैं। इसके बावजूद, संस्कारों के दबाव में वे उन्हीं कुकर्मों को सीने से लिपटाये रहते हैं। ऊपर से वे प्रसन्न नजर आते हैं. किन्तु अवचेतन मन तो कुकर्मी का भी होता है। व्यक्ति सुकर्मी हो या कुकर्मी. मन तो सभी का दो भागों में बँटा है - चेतन और अवचेतन। इसमें अवचेतन की शक्ति अधिक है। यह शक्ति न केवल मात्रा में अधिक है. बल्कि यह रहस्यमय एवं गुप्त भी है। इसीलिए यह शक्ति तब कैसा चमत्कार कर गई, पता नहीं चलता। कुकर्मी का प्रत्येक कुकर्म उसके अवचेतन में दर्ज होता है। यह अवचेतन मन कुकर्मी की लगातार भर्त्सना करता है। अवचेतन की खामोश आवाज कुकर्मी पर भूत की तरह सवार रहती है। कोई कुकर्मी कभी चैन की नींद नहीं सोया करता। कुकर्मी कभी अपनी इज्जत खुद नहीं कर पाता। कुकर्मी की तड़पन को कुकर्मी ही पहचानता है। कुकर्मी का सुख झूठा और दुःख सच्चा होता है।''

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