आचार्य श्रीराम किंकर जी >> चमत्कार को नमस्कार चमत्कार को नमस्कारसुरेश सोमपुरा
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यह रोमांच-कथा केवल रोमांच-कथा नहीं। यह तो एक ऐसी कथा है कि जैसी कथा कोई और है ही नहीं। सम्पूर्ण भारतीय साहित्य में नहीं। यह विचित्र कथा केवल विचित्र कथा नहीं। यह सत्य कथा केवल सत्य कथा नहीं।
'मैं उस धर्म का पोषक हूँ सुरेश. जिसमें मनुष्य ईश्वर को पहचानने के लिए स्वयं को पहचानने निकलता है। सदानन्द और रंजना से मैंने क्या कहा है? स्वयं को पहचानो। स्वयं के अन्दर छिपी आदिम यौन-भावना को पहचानो। तभी तुम दोनों एक-दूसरे का सही मूल्यांकन कर सकोगे और समाज के विरुद्ध खड़े होने का साहस भी जुटा सकोगे। अपनी यौन-भावना को यदि तुम पूर्व-जन्म के नाते का प्रतिफलन बताओगे. तो समाज को एवं स्वयं को धोखा ही दोगे, साथ में उस अगम्य, अगोचर परमात्मा को भी धोखा दोगे, जिसने पुनर्जन्म जैसी कोई व्यवस्था बनाई ही नहीं है।'
'मैं बार-बार कहता हूँ अपने-आप को पहचानो। आत्म-बल बढाओ। आत्म-संयम रखो। कर्ण-पिशाचिनी क्या है? आत्म-बल। कल्पना-योग क्या है? आत्म-बल। जिस नरमुण्ड को तुमने निर्जीव समझा, उसी को अपने केवल एक इशारे पर मैंने अधर में कैसे उठा दिया? आत्म-बल। निरा आत्म-बल!''
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अगले दिन!
सुबह-सुबह, गुरुदेव के भक्त महाशय दौड़ते हुए आते दिखाई दिये। उनका चेहरा फक पड़ चुका था। हाथ-पैर थरथरा रहे थे।
मैं. दीदी और गुरुदेव उनकी ओर कौतूहल एवं आशंका से देखने लगे।
उन्होंने आते ही कहा, ''गुरुदेव! सदानन्द और रंजना ने आत्म-हत्या कर ली।'' और उन्होंने कागज का एक टुकडा गुरुदेव के हाथ में रख दिया, यह सन्देश लिखकर छोड़ गये हैं।'
गुरुदेव ने कागज मुझे दे दिया और ऊँचे स्वर में पढ़ने को कहा-
पूज्य मामाजी एवं अन्य सभी स्नेहीजन!
अन्तिम नमस्कार!
हमारा यह जन्म निरर्थक हो गया है। यह संसार हमें असार लगता है। हम मृत्यु की शरण में जा रहे हैं। इस जन्म में तो हमारा मिलन न हो सका, किन्तु अगले जन्म में पति-पत्नी बनने की आकांक्षा और विश्वास के साथ हम हमेशा को विदा ले रहे हैं। क्षमा कीजियेगा....
-सदानन्द-रंजना।
कागज वापस परतों में मोड़कर मैंने भक्त महाशय को दे दिया।
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