आचार्य श्रीराम किंकर जी >> चमत्कार को नमस्कार चमत्कार को नमस्कारसुरेश सोमपुरा
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यह रोमांच-कथा केवल रोमांच-कथा नहीं। यह तो एक ऐसी कथा है कि जैसी कथा कोई और है ही नहीं। सम्पूर्ण भारतीय साहित्य में नहीं। यह विचित्र कथा केवल विचित्र कथा नहीं। यह सत्य कथा केवल सत्य कथा नहीं।
इक्कीस
बेचारे वे दोनों...
सदानन्द और रंजना मेरे लिए एक विचित्र नैतिक पहेली बन चुके थे।
उनकी गुत्थी मेरे मानस से हटने को तैयार नहीं थी। धर्म-अधर्म, कर्म-कुकर्म के बारे में गुरुदेव जो कह रहे थे, मैं सुन तो ध्यान से रहा था, किन्तु पल भर के लिए भी सदानन्द और रंजना को भूले बिना।
सुरेश! अब मैं तुम्हारे प्रश्न पर आता हूँ।' गुरुदेव का स्वर मेरे कानों तक पहुँच रहा था, 'आत्मा और पुनर्जन्म पर करोड़ों लोगों को जो श्रद्धा है, उसके खण्डित हो जाने पर कोई नया धर्म सामने आयेगा या अश्रद्धा का विस्तार होगा? यही है न तुम्हारा प्रश्न?
'जी गुरुदेव' - मैंने कहा।
'लेकिन सुरेश! मैंने तो श्रद्धा को खण्डित करने की बात कभी की ही नहीं। मैं तो केवल अन्ध-श्रद्धा को खण्डित करने की बात कता हूँ। आज के वैज्ञानिक युग में भी लोग धर्म पर श्रद्धा नहीं, अन्ध-श्रद्धा रखे हुए हैं। मैं इसके विरुद्ध हूँ। धर्म का नाम सबने सुना है। जानता कोई नहीं कि धर्म क्या है। मैं जब कहता हूँ कि आत्मा या परमात्मा नहीं है, तब वास्तव में यह कह रहा होता हूँ कि आत्मा या परमात्मा का जैसा रूप लोगों ने सोच रखा है, वैसा रूप उनका कदापि नहीं है। मैं वास्तव में लोगों को ललकारना चाहता हूँ कि आत्मा और परमात्मा की सही पहचान के लिए वे धर्म की जाँच करें। हजारों वर्ष पुराना धर्म आज भी ज्यों-का-त्यों चला आ रहा है, जबकि विज्ञान ने दुनिया को कहाँ-से-कहाँ पहुँचा दिया है। आज सब जानते हैं, चन्द्रमा या सूर्य देव नहीं हैं, भले ही धर्म-ग्रन्थों में उन्हें देव माना गया हो। चन्द्रमा केवल एक उपग्रह है और सूर्य केवल एक अग्नि-पिण्ड... इसी तरह धर्म-ग्रन्थों की असंख्य बातें ऐसी हैं, जिन्हें आज नये सिरे से समझने की जरूरत है। विडम्बना यही तो है कि हम अपने धार्मिक विधानों की रंचमात्र भी जाँच करने को तैयार ही नहीं हैं। इसी का नाम है, अन्ध-श्रद्धा। हमें श्रद्धा से नहीं, अंध-श्रद्धा से छूटने की जरूरत है।'
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