आचार्य श्रीराम किंकर जी >> चमत्कार को नमस्कार चमत्कार को नमस्कारसुरेश सोमपुरा
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यह रोमांच-कथा केवल रोमांच-कथा नहीं। यह तो एक ऐसी कथा है कि जैसी कथा कोई और है ही नहीं। सम्पूर्ण भारतीय साहित्य में नहीं। यह विचित्र कथा केवल विचित्र कथा नहीं। यह सत्य कथा केवल सत्य कथा नहीं।
मैंने सिर हिलाया. ''हाँ, गुरुदेव! ''
वह आगे चले, 'अब प्रश्न है कि धर्म की कल्पना मनुष्य ने किस आधार पर की? भय के आधार पर। मनुष्य का सबसे बडा भय था और है मृत्यु! मृत्यु को मनुष्य ने हमेशा अगम्य, अलौकिक, अद्भुत और भयावह पाया है। मनुष्य का ज्ञान बढता गया, किन्तु मृत्यु को वह न समझ पाया। मृत्यु को नकारने के लिए उसने जीवन के आधारों की पूजा शुरू कर दी। उसने देखा कि सूर्य यानी अग्नि के बिना जीवन असम्भव है। उसने अग्नि की पूजा की। उसने देखा कि जल के बिना जीवन नहीं जीया जा सकता। उसने जल की पूजा की। मनुष्य के पास मन था ही। मन के पास थी कल्पना-शक्ति। इस कल्पना-शक्ति ने जीवन के प्रत्येक आधार का एक-एक देव या देवी मनुष्य के सामने ला खड़ी की। मृत्यु को नकारने के लिए मनुष्य उसी देव या देवी को रिझाने में मशगूल हो गया। मृत्यु का देव, जीवन का देव, आहार का देव, विहार का देव, निद्रा का देव, जागृति का देव.......... देवों की संख्या बढ़ने लगी। पूजा बढ़ी। यज्ञ बढ़े। देव-देवी को रिझाने की नित नई पद्धतियाँ मनुष्य खोजने लगा। यहाँ तक कि उसने अन्य जीवों के और स्वयं मनुष्य के भी बलिदान शुरू कर दिये।'
''किन्तु मृत्यु का भय तो ज्यों-का-त्यों बना रहा। विचारकों के सामने स्पष्ट हो गया कि देव-देवी को रिझाने का चाहे कोई भी तरीका अपनाया जाये, मृत्यु के भय में रंचमात्र भी कमी नहीं आती। निर्भय होने के लिए किसी नये तरीके की खोज करनी होगी। विचारकों ने अपनी कल्पना-शक्ति को काम पर लगा दिया। आम आदमी की तुलना में विचारकों की कल्पना-शक्ति बहुत बढ़ी-चढ़ी थी ही। विचारकों ने जो नया तरीका सोचा. उसने आम आदमी को अभिभूत कर दिया। विचारकों ने कहा कि जो मृत्यु हम देखते हैं, वह मृत्यु है ही नहीं। वह तो केवल शरीर-परिवर्तन है। यानी, आत्मा एक शरीर से निकलकर दूसरे शरीर में चली गई है। आत्मा तो अमर है। आत्मा को मृत्यु-भय कभी नहीं सताता...। ''
''आम आदमी की खुशी की सीमा न रही। विचारकों के ऐलान ने आम आदमी को सचमुच मृत्यु-भय से छुटकारा दिला दिया। अभी मर गये, तो दुबारा जन्म लेंगे। दुबारा मर गये, तो तिबारा जन्म ले लेंगे। मृत्यु हमारा बिगाड़ ही क्या सकती है?''
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