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आचार्य श्रीराम किंकर जी >> चमत्कार को नमस्कार

चमत्कार को नमस्कार

सुरेश सोमपुरा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :230
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9685
आईएसबीएन :9781613014318

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यह रोमांच-कथा केवल रोमांच-कथा नहीं। यह तो एक ऐसी कथा है कि जैसी कथा कोई और है ही नहीं। सम्पूर्ण भारतीय साहित्य में नहीं। यह विचित्र कथा केवल विचित्र कथा नहीं। यह सत्य कथा केवल सत्य कथा नहीं।

रंजना ने क्षणांश के लिए गुरुदेव की ओर देख तो लिया, किन्तु कहा कुछ नहीं। फिर से उसकी नजर धरती पर टिक गई।

'जाओ रंजना! जो कुछ मैंने कहा है, उस पर सोचो। झूठ से चिपको मत। सच्चाई को स्वीकारो। यदि सच्चाई भी स्वीकार करने का साहस तुम में नहीं है, तो मानकर चलो कि समाज के विरुद्ध तुम ज्यादा टिक नहीं सकोगी। सदानन्द से विवाह करके तुम न उसे सुख दे, सकोगी, न स्वयं सुख पाओगी। दोनों जीते-जी अग्नि में जलोगे।'

रंजना जब जाने लगी, गुरुदेव ने फिर कहा, 'अभी मेरी बातों से तुम्हें अकुलाहट हो रही होगी। शान्त होकर, दो दिन बाद, फिर से सोचना। तुम दोनों मिलकर सोचना। मुझसे चर्चा करना आवश्यक लगे, तो संकोच न करना।'

रंजना चली गई।

गुरुदेव ने गहरी साँस ली, 'यह भी कायर लगती है.....।''

मैं पूछे बिना न रह सका, 'गुरुदेव! यदि आपके मतानुसार चलें, तब तो...... क्या हिन्दू धर्म की नींव पर ही कुठाराघात नहीं होता? आज तक हिन्दू धर्म इस विश्वास पर टिका है कि जब-जब धर्म संकट में पड़ता है, तब-तब उसे उबारने के लिए भगवान जन्म लेते हैं। अब.... जैसा कि आप कह रहे हैं..... यदि हम जन्म और पुनर्जन्म को नकार दें, तो हमें भगवान के बार-बार जन्म लेने के सिद्धान्त को भी नकारना होगा। क्या इससे करोड़ों लोगों की श्रद्धा खण्डित न हो जायेगी? क्या खण्डित श्रद्धा से किसी नये धर्म का निर्माण होगा? या अधर्म का? '' कुछ देर तो वह शान्ति से ही बैठे रहे। फिर, मानो सुदूर क्षितिज से शब्दों को खोजकर ला रहे हों. इस प्रकार उन्होंने कहा, 'अवतारवाद पर मेरा विश्वास नहीं है। भगवान के जन्म और दुबारा जन्म आदि को मैं पूर्णतया असत्य पाता हूँ। यह मान्यता मेरे तर्कों पर कभी खरी नहीं उतरी। तुम पूछोगे कि मेरे तर्क क्या हैं? इसके उत्तर में मैं यही कहूँगा कि सबसे पहले धर्म के बारे में स्पष्ट हो जाना चाहिए। मैं देख रहा हूँ कि मुक्ति पाने के लिए मानव ने धर्म का सृजन किया, किन्तु उसी धर्म ने बेचारे मानव को बेड़ियाँ पहना दी हैं।

'सबसे पहले हम यह सोचें कि धर्म आया कहाँ से। ध्रर्म आसमान से नहीं टपका है। मनुष्य के सिवा अन्य किसी प्राणी को धर्म की चिन्ता नहीं है। केवल मनुष्य ही धर्म की कल्पना कर सकता है। ईश्वर और धर्म दोनों मनुष्य की कल्पना में वास करते हैं। सहमत हो या नहीं?'

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