आचार्य श्रीराम किंकर जी >> चमत्कार को नमस्कार चमत्कार को नमस्कारसुरेश सोमपुरा
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यह रोमांच-कथा केवल रोमांच-कथा नहीं। यह तो एक ऐसी कथा है कि जैसी कथा कोई और है ही नहीं। सम्पूर्ण भारतीय साहित्य में नहीं। यह विचित्र कथा केवल विचित्र कथा नहीं। यह सत्य कथा केवल सत्य कथा नहीं।
गुरु चैतन्यानन्द जी से कर्ण-पिशाचिनी विद्या एवं कल्पना-योग नामक जीवन-पद्धति का प्रसाद ग्रहण कर मैं वापस अपने घर की ओर रवाना हो गया। घर पहुँचते ही कर्ण-पिशाचिनी ने मेरे गले पर अजगर की तरह कुण्डल कस दिया। दूसरों के मन की बातें मालूम कर लेना कितना कष्टकर हो सकता है, मैंने पहली बार जाना।
मुझमें इतनी सहन-शक्ति नहीं थी कि दूसरों के दुःख-दर्द या टुच्चेपन से कदम-कदम पर साक्षात्कार करता फिरूँ। दुनिया में एक भी व्यक्ति ऐसा नजर नहीं आता था, जिस पर मैं पूरा भरोसा कर सकूँ। सबके मन के भेद मुझ पर खुल जाते थे मैं सभी से नफरत करने लगता था।
यह तो मुझे मालूम था कि मनुष्य जाति कितनी कमीनी है. लेकिन कमीनापन भी कितना बढ़ाचढ़ा हो सकता है, मुझे गुमान नहीं था। कर्ण-पिशाचिनी ने मुझे मनुष्य के चरम सीमा के कमीनेपन से साक्षात्कार करा दिया। मैं सभी के प्रति नफरत से भरता जा रहा था.........।
जबकि गुरुदेव को मैंने कोई और ही वचन दिया था...।
ध्येय के शब्दों को मैं भूला नहीं था। उन्होंने कहा श्रा सुरेश! सदा प्रेम का विस्तार करना। विवेक का विस्तार करना। मानवता का विस्तार करना। यही कल्पना-योग है।'
मेरे सामने स्पष्ट होते देर न लगी कि जब तक मैं कर्ण-पिशाचिनी का जानकार हूँ तब तक मनुष्यों से प्रेम करना मेरे लिए मुश्किल ही रहेगा। मनुष्यों के टुच्चेपन की असलियत मेरे सामने नग्न होकर खड़ी थी। मैं टुच्चे मनुष्यों से प्रेम कैसे करता? और... यदि मैं घृणा करूँगा, तो बदले में घृणा ही पाऊँगा। यह तो प्रेम का, विवेक का, मानवता का विस्तार नहीं है। इसमें तो विशुद्ध घृणा का विस्तार है।
तो क्या....।
कर्ण-पिशाचिनी के कारण मुझसे मेरा कल्पना-योग छूट जायेगा? नहीं, नहीं, ऐसा नहीं होना चाहिए। कल्पना-योग तो गुरुदेव का दिया सबसे मूल्यवान प्रसाद है। मेरे मानसिक त्रास की सीमा नहीं थी। एक और कारण से भी यह त्रास असहनीय हो चला था। गुरुदेव के सान्निध्य से लौटते ही मैंने पाया था कि मेरा एक वर्ष का लाडला बेटा पोलियो से पीड़ित है...।
बीबी-बच्चों से मोह के जिन तन्तुओं को तोड़कर मैं गुरुदेव की शरण में गया था, वे तन्तु अब और भी दृढ़ता से जुड़ गये थे। केवल साल भर के मासूम बेटे की पीड़ा मुझसे देखी नहीं जाती थी। कर्ण-पिशाचिनी का त्रास इस पीड़ा के साथ मिलकर मुझे दीवाना बनाये दे रहा था। मैं कर्ण-पिशाचिनी से मुक्त होना चाहता था. किन्तु समझ नहीं पाता था, मुक्ति के लिए क्या करूँ। दूसरों के मन की बातें जानने की मैं चेष्टा करता ही नहीं था, किन्तु बातें बिना चेष्टा किये ही मुझे पता चलती रहतीं। क्षण-क्षण मेरे कानों में बुदबुदाहट होती रहती कि सामने खड़े व्यक्ति के मन में अभी कितनी, कैसी साजिशें घुमड़ रही हैं।
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