आचार्य श्रीराम किंकर जी >> चमत्कार को नमस्कार चमत्कार को नमस्कारसुरेश सोमपुरा
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यह रोमांच-कथा केवल रोमांच-कथा नहीं। यह तो एक ऐसी कथा है कि जैसी कथा कोई और है ही नहीं। सम्पूर्ण भारतीय साहित्य में नहीं। यह विचित्र कथा केवल विचित्र कथा नहीं। यह सत्य कथा केवल सत्य कथा नहीं।
अनेक क्षणों तक मैं समझ न पाया, क्या बोलूँ। चार-छह मिनटों में ही परम ज्योति से साक्षात्कार का जो अनुभव मैंने लिया था. उसने मुझे दिग्मूढ़ कर दिया था। वैसा अलौकिक अनुभव, केवल अपने स्पर्श मात्र से, दे सकने में समर्थ महापुरुष मेरे सामने लहूलुहान पड़ा था।
मैं हौले से बोला. 'दीदी? '
'अब क्या करें?' दीदी ने पूछा।
मानो उनके प्रश्न के उत्तर में ही, रेडक्रॉस की एम्बुलेन्स वहाँ झप्प से प्रकट हो गई। शव-साधना से पहले गुरुदेव ने जिस ग्रामीण को भगा दिया था. वह भी जाने कहाँ से दौडता आ पहुँचा था। मैंने उसे एन्बुलेन्स के कर्मचारियों की सहायता करते देखा। दो स्ट्रेचर उतारे जा रहे थे। एक पर उस लाश को और दूसरे पर घायल गुरुदेव को रखकर हम लोग एम्बुलेन्स की गाड़ी में बैठे। लाश हमारे पास कैसे थी, यह प्रश्न उस धमाल में किसी को न सूझा, अन्यथा उत्तर देना हमें भारी पड जाता।
गुरुदेव को हम लोग मन्दिर में ले आये। डाँक्टरों ने तुरन्त उनका उपचार किया। उनकी पीठ का घाव वास्तव में गहरा था। फौज के सर्जन ने मुझे और दीदी को एक तरफ बुलाकर नेक सलाह दी, 'आपके गुरुदेव दो दिनों बाद ही इतने ठीक हो सकेंगे कि एम्बुलेन्स में कहीं जा सकें। हमने पहले भी सलाह दी थी, लेकिन आप लोग माने नहीं। यहाँ रहने में बहुत खतरा है। गुरुदेव का घाव पूरी तरह भरने में तीन-चार हफ्ते लग सकते हैं। घाव इतना गहरा है कि टाँके भी नहीं लगाये जा सकते।'
उस समय मेरी जो हालत थी, उसका वर्णन करना मुश्किल है। किसी मीठी झील का स्वामी उसके किनारे प्यासा खड़ा हो, ऐसी मनःस्थिति मेरी हो चुकी थी। श्मशान में हम लोग उस लाश के पास कैसे मौजूद थे और लाश के बारे में हम क्या जानते हैं. यह सवाल बहुत सख्ती से, फौज की ओर से पूछा गया था। गुरुदेव केवल दार्शनिक कारणों से श्मशान में घूमने गये थे। दीदी और मैं केवल उनकी सुरक्षा के लिए साथ थे। लाश वहाँ हमने लावारिस पड़ी देखी। अभी हम झुककर देख ही रहे थे कि हवाई हमला हो गया..... ऐसी बात बनाकर दीदी ने फौजियों को किसी तरह टालने में सफलता पा ली थी।
सुबह होने तक मैं एकाध घण्टे की ही नींद ले सका। मैं गुरुदेव के पास पहुँचा। वह होश में आ चुके थे। छाती से कमर तक उनका शरीर पट्टियों से लिपटा पड़ा था। वह दाहिनी करवट पर लेटे थे। कुछ भी बोले बगैर उनकी खाट के पास घुटनों के बल बैठकर मैं फूट-फूटकर रोने लगा। जन्म-जन्मान्तर की मानवीय महत्त्वाकांक्षा जितना ज्ञान मुझे दे सकती, वह उन्होंने केवल एक क्षण में, अपने केवल स्पर्श से ही, मुझे देने की कृपा की थी। न केवल इतना, बल्कि उन्होंने मेरी जान भी बचाई थी। यदि उन्होंने अपने शरीर के नीचे मुझे छिपा न लिया होता तो?
आँसुओं के आरपार मैंने उन्हें देखना चाहा, तो वह मेरी ओर ही देखते हुए हँस रहे थे। वही व्यंग्य-भरी हँसी....।
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