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आचार्य श्रीराम किंकर जी >> चमत्कार को नमस्कार

चमत्कार को नमस्कार

सुरेश सोमपुरा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :230
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9685
आईएसबीएन :9781613014318

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यह रोमांच-कथा केवल रोमांच-कथा नहीं। यह तो एक ऐसी कथा है कि जैसी कथा कोई और है ही नहीं। सम्पूर्ण भारतीय साहित्य में नहीं। यह विचित्र कथा केवल विचित्र कथा नहीं। यह सत्य कथा केवल सत्य कथा नहीं।

''हे, ज्योति-पुंज! मैंने अन्तर-समाधि लगाकर, ज्योति-पुंज के अन्तर के साथ अपने अन्तर को साधकर, पहला सवाल किया, 'इतने विराट होकर भी, इतने प्रकाशमान होकर भी, आप इस अतल अन्धकार से क्यों घिरे हुए हैं? अन्धकार के साथ आपका जो युद्ध छिड़ा है, उसमें अन्तत: जीत किसकी होगी?''

मेरा प्रश्न सुनकर ज्योति-पुंज की अग्नि शिखाएँ और भी तीव्रता से प्रज्ज्वलित हो उठीं।

चिनगारियाँ सभी दिशाओं में निकल-निकल कर आकाश में भागने लगीं। मेरा शरीर भीषण ताप से झुलसने लगा।

मृदंग के प्रचण्ड घोष जैसी ध्वनि ज्योति-पुंज में से निकलने लगी। मेरे कान उस निनाद को सुनने में समर्थ नहीं थे। हृदय अवश्य उसका अर्थ भली-भाँति समझ रहा था।

ज्योति-पुंज ने कहा, 'मैं अन्धकार से घिरा हुआ इसलिए हूँ कि इसके बिना मेरा अस्तित्व नहीं है। यदि चारों ओर ज्योति-ही-ज्योति होती, तो मैं दिखाई कैसे पड़ता? जैसे मेरा अस्तित्व अन्धकार के बिना सम्भव नहीं है, वैसे ही अन्धकार का भी अस्तित्व मेरे बिना सम्भव नहीं। यदि मैं न होता, तो इस अन्धकार को अन्धकार कौन कहता? अन्धकार और मेरे बीच युद्ध है ही नहीं। हम योद्धा नहीं, शत्रु नहीं, परस्पर पूरक हैं। अन्धकार निराशा नहीं है और प्रकाश आशा नहीं है। यह आशा-निराशा तो तुम्हारा भ्रम है। अन्धकार प्रकाश का कवच है। प्रकाश अन्धकार के गर्भ में रहता है। दोनों का महत्त्व समान है। स्थिति समान है। दोनों एक-दूसरे के कारण हैं। यदि दो में से एक को भी हटा दिया गया, तो दूसरा अपने-आप हट जायेगा। नष्ट हो जायेगा। इसलिए अन्धकार से नाराज न रहो, प्रकाश पर मोहित न रहो।'

'हे ज्योति-पुंज!' मैंने फिर पूछा. 'मानव क्या है?'

उत्तर मिला, 'जितना प्रेम मानव कर सकता है, उतना अन्य कोई जीव नहीं। इसलिए, प्रेम का सर्वोत्तम प्रतीक ही मानव है।'

'और.... परमेश्वर क्या है?'

'परमेश्वर की कल्पना केवल मानव कर सकता है, अन्य कोई जीव नहीं। इसलिए, मानव की सर्वोत्तम कल्पना ही परमेश्वर है।'

'परमेश्वर कहाँ है? उसे मैं कहाँ खोजूँ?'

'परमेश्वर मानव की कल्पना में बसता है। उसे तुम वहीं खोजो।'

खामोश ब्रह्माण्ड के विराट गुम्बद में ज्योति-पुंज के शब्द घुमड़ रहे हैं। अग्नि-शिखाओं में एक नमी आ गई है। वही नमी मैं अपनी पलकों के नीचे महसूस करता हूँ....।

मेरी पलकें खुल जाती हैं।

उसी भयानक श्मशान में बैठा हुआ हूँ। गुरुदेव दीदी की गोद में ज्यों-के-त्यों पडे हुए हैं। अन्धकार में भी गुरुदेव के मनोभावों को मैं स्पष्ट भाँप सकता हूँ। नहीं उनके मुख-मण्डल पर वेदना नहीं हो सकती। वहाँ तो आनन्द ही होना चाहिए। सुख और तृप्ति।

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