आचार्य श्रीराम किंकर जी >> चमत्कार को नमस्कार चमत्कार को नमस्कारसुरेश सोमपुरा
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यह रोमांच-कथा केवल रोमांच-कथा नहीं। यह तो एक ऐसी कथा है कि जैसी कथा कोई और है ही नहीं। सम्पूर्ण भारतीय साहित्य में नहीं। यह विचित्र कथा केवल विचित्र कथा नहीं। यह सत्य कथा केवल सत्य कथा नहीं।
अठारह
वह जगमग ज्योति-पुंज...
अतल अंतरिक्ष में उतराते हुए मैंने अकुलाकर सूर्य को खोजना चाहा। सूर्य अभी तक केवल एक चिनगारी जैसा सूक्ष्म बना हुआ था। अरे! जिसे मैंने तेज का पुंज, काल का स्वामी, जीवन का आधार, ग्रहों का पिता कहकर हमेशा पुकारा है, वही सूर्य क्या केवल एक चिनगारी है? चिनगारी तो क्षण में कौंधती, क्षण में बुझती है।
तो क्या... मेरा महान् सूर्य भी... क्षणांश में बुझ जाने वाला है? नहीं.... नहीं......।
लेकिन...।
सूर्य नामक यह चिनगारी आई कहाँ से? जा कहाँ रही है? जब सूर्य ही इतना सूक्ष्म है, इतना महत्वहीन है, फिर पृथ्वी की बिसात ही क्या? पृथ्वी पर यह जो गर्वीली मानव जाति बसती है, इसकी भी क्या बिसात है?
सूर्य, पृथ्वी और मानव का मूल्यांकन-सही मूल्यांकन-शायद वही कर सके, जो इन असंख्य चिनगारियों की आतिशबाजी का रचयिता है...।
वह आग कहाँ है कि जिसमें से ये चिनगारियाँ बिखर रही हैं?
मुझे उस आग को खोज निकालने का मन हुआ। मन होते ही मैं प्रचण्ड वेग से आग की ओर जाने लगा। चिनगारियों की संख्या बढने लगी। अनेक युगों तक मैं गति करता रहा। मैं थकता नहीं था, ऊबता नहीं था। भारहीन पंख की तरह मैं आगे से और आगे उतराता जा रहा था। अन्धकार को भेद रहे प्रकाश की सरहद पर मैं आ खड़ा हुआ। एक प्रखर ऊष्मा मुझे अनुभव होने लगी। प्रेम की ऊष्मा। माँ की गोद की ऊष्मा। गुरु के स्पर्श की ऊष्मा। आनन्द के सिवा अन्य किसी अनुभूति के लिए वहाँ स्थान नहीं था।
एक प्रचण्ड ज्योति-पुंज के पास पहुँचकर मैं रुक गया। पुंज की तेजस्विता अद्भुत थी। उसकी अग्नि-शिखाएँ किसी गर्वीले ऋषि की जटाओं जैसी लग रही थीं। वे चिनगारियाँ उन्हीं अग्नि-शिखाओं में से निकल-निकलकर ब्रह्माण्ड में गमन कर रही थीं।
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