आचार्य श्रीराम किंकर जी >> चमत्कार को नमस्कार चमत्कार को नमस्कारसुरेश सोमपुरा
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यह रोमांच-कथा केवल रोमांच-कथा नहीं। यह तो एक ऐसी कथा है कि जैसी कथा कोई और है ही नहीं। सम्पूर्ण भारतीय साहित्य में नहीं। यह विचित्र कथा केवल विचित्र कथा नहीं। यह सत्य कथा केवल सत्य कथा नहीं।
वह बुदबुदाये, शव-साधना पूरी न हो सकी। प्रथम चरण पर ही हमें रुक जाना पड़ा...।'
मैंने थर्राकर पूछा, गुरुदेव! आप कैसे हैं? आपकी पूरी पीठ...।'
'अपनी अशान्ति का कर्ज तुझे सौंपना चाहता हूँ। जरा और नजदीक आ।'' मैं उनके और पास आ गया।
उन्होंने काँपते हाथ से मेरे मस्तक पर स्पर्श किया।
और न जाने कौन-सी अलौकिक बिजली मेरे पूरे शरीर में दौड़ गई। इससे पहले भी, उनके केवल एक ही स्पर्श से जो अगम्य अनुभव हुआ था, उसे मैं भूला नहीं था। इस बार का अनुभव तो उससे भी ज्यादा अगम्य, अलौकिक था। पल भर के लिए बिजली की चौंध... अगले ही क्षण काजल-सा काला अन्धकार....।
किसी पंछी के भारविहीन पंख की तरह मैं उस अन्धकार में उतर रहा था। एक ही प्रश्न था मेरे सामने, 'मैं कहाँ हूँ?'
भारहीन होकर मैं ब्रह्माण्ड की ओर उड़ने लगा।
श्मशान न जाने कहाँ लुप्त हो गया था। धरती के गुरुत्वाकर्षण से मुक्त होकर उड़ जाने वाला अकेला मैं ही था।
अन्धकार में मैंने सूर्य चमकते देखा। एक ही क्षण में वह इतना दूर चला गया कि नन्हीं चिनगारी जैसा दीखने लगा। मैंने आँखें मल-मलकर देखा। सूर्य जैसी चिनगारी में बदल गया था, वैसी ही असंख्य चिनगारियाँ ब्रह्माण्ड में प्रचण्ड वेग से भाग रही थीं।
बारम्बार कोई चमकीला बिन्दु अन्धकार में प्रकट होकर, लम्बी लकीर-सी बनाता हुआ बुझ जाता। चारों ओर ऐसी विलक्षण आतिशबाजी होने लगी कि मैं हतप्रभ रह गया। कुछ क्षण पहले देखे युद्ध की प्रतिछाया तो नहीं है? किन्तु इस आतिशबाजी में तो सृजन की तृप्ति है। ऐसी तृप्ति युद्ध में कहाँ होती है?
और... इस अतल ब्रह्माण्ड में... पृथ्वी किधर है? ठण्डे पड़ चुके एक रज-कण को मैंने पहचाना-वही थी पृथ्वी!
वह अगम्य, अतीन्द्रिय अनुभव मुझे कहाँ ले जा रहा था? कहाँ? कहाँ?
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