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आचार्य श्रीराम किंकर जी >> चमत्कार को नमस्कार

चमत्कार को नमस्कार

सुरेश सोमपुरा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :230
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9685
आईएसबीएन :9781613014318

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यह रोमांच-कथा केवल रोमांच-कथा नहीं। यह तो एक ऐसी कथा है कि जैसी कथा कोई और है ही नहीं। सम्पूर्ण भारतीय साहित्य में नहीं। यह विचित्र कथा केवल विचित्र कथा नहीं। यह सत्य कथा केवल सत्य कथा नहीं।

सोलह

कर्ण-पिशाचिनी साक्षात् खड़ी

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मैं, गुरु चैतन्यानन्द एवं दीदी, श्मशान-घाट की ओर कदम बढ़ाते जा रहे थे। आकाश में घिरे बादलों के कारण गर्मी हो रही थी। हवा थम गई थी। साँस लेने में भी बेचैनी लग रही थी।

गुजरती फौज के कारण हम सड़क पर से नहीं चल सकते थे। फौज के सैकड़ों यन्त्रों की गुर्राहट वातावरण को बोझिल और उदास बना रही थी। हम एक मैदान की पगडण्डी पर बढ़े जा रहे थे। सब नंगे पाँव थे। सूखी धरती ने दिनभर में इतनी गर्मी सोख ली थी कि रात के ग्यारह बजे भी वह गर्मी हमारे नंगे पैरों को सेंक रही थी। गुरुदेव और हमारा ग्रामीण मार्गदर्शक तो आसानी से बढ़ रहे थे किन्तु मैं और दीदी कुछ पिछड़ गये थे। हम दोनों को बिना चप्पल के घूमने की आदत न होने के कारण कंकड़ और काँटे हमें बहुत चुभ रहे थे। हमारी धीमी गति के कारण चैतन्यानन्द जी को बार-बार रुक जाना पड़ता।

उस दिन, नदी-किनारे जो श्मशान मैंने देखा था, वहीं हमें पहुँचना था। नदी तो नाम के लिए ही थी। बारिश के दिनों में थोड़ा-बहुत पानी उसमें आता होगा। अधिकांश पानी तो प्यासी धरती में ही समा जाता होगा। नदी के सूखे पाट में. कहीं-कहीं गहरे कुएँ खोदे गये थे। ऐसे ही एक कुएँ के नजदीक वह श्मशान था। चलते-चलते मैं चैतन्यानन्द जी के ही बारे में सोचने लगा। उन जैसा महात्मा मैंने पहले कभी नहीं देखा था। न जाने कितने धर्म-धुरन्धरों से मैं साक्षात्कार कर चुका था। वे सब अपनी मान्यताओं के साथ जोंक की तरह चिपके हुए थे। जीवन भर की संजोई हुई मान्यताओं को, जीवन के अन्तिम दिनों में, असत्य स्वीकार कर लेने की उदारता और हिम्मत किसी भी धर्म-धुरन्धर में नहीं थी। इस उदारता और हिम्मत के दर्शन मैंने चैतन्यानन्द जी में पहली बार किये थे। न जाने कितनी चमत्कारपूर्ण सिद्धियाँ उनके पास हैं, किन्तु सिद्धियों की सारी व्यर्थता को उन्होंने कितनी दिलेरी के साथ स्वीकार कर लिया है। उन्होंने मुझे स्पष्ट सलाह दी है कि मैं किसी देव में, किसी प्रेत में, किसी चमत्कार में, किसी सिद्धि में विश्वास न रखूँ। विश्वास मैं केवल अपने आत्म-बल पर रखूँ अपने ही मन की शक्ति पर रखूँ।

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