आचार्य श्रीराम किंकर जी >> चमत्कार को नमस्कार चमत्कार को नमस्कारसुरेश सोमपुरा
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यह रोमांच-कथा केवल रोमांच-कथा नहीं। यह तो एक ऐसी कथा है कि जैसी कथा कोई और है ही नहीं। सम्पूर्ण भारतीय साहित्य में नहीं। यह विचित्र कथा केवल विचित्र कथा नहीं। यह सत्य कथा केवल सत्य कथा नहीं।
मेरे मन के विकास के ही लिए अभी वह मुझे श्मशान में ले जा रहे हैं। यदि वह चाहते, तो आसानी से कह सकते थे कि श्मशान में हम प्रेत साधेंगे पिशाच साधेंगे देव-देवी साधेंगे लेकिन नहीं। उन्होंने स्पष्ट कहा है कि श्मशान में हम अपने ही मन को साधेंगे....।
गुरुदेव के प्रति मेरे मन में श्रद्धा का सागर लहराने लगा।
एकाध घण्टे के बाद हम श्मशान के आमने-सामने खडे थे। गुजरती फौज की गुर्राहट मानो मुझे सहारा दे रही थी। यदि वह गुर्राहट न होती. तो सन्नाटा अभी कितना असहनीय हो जाता। गुर्राहट मुझे बता रही थी कि मैं अकेला नहीं था। भले ही गुजरते हुए और भले ही एक फासले पर, किन्तु वहाँ हजारों सैनिक मौजूद थे। मेरा मन विचित्र ढंग से शान्त था। जैसे किसी सुखद भविष्य के स्वागत के लिए मैंने मानसिक तैयारी कर ली हो।
चैतन्यानन्द जी नजदीक आ खडे हुए थे।
उन्होंने मेरे कन्धे पर हाथ रखकर धीर-गम्भीर स्वर में कहा, ''बरसने के लिए तड़क रहे काले मेघ की मनोदशा की कल्पना क्या तुम कर सकते हो?''
मैंने 'हाँ' कही।
''अभी वही मनोदशा मेरी है।' गुरुदेव का स्वर था।
कुछ पलों की खामोशी के बाद वह फिर बोले. 'शब्दों से कुछ नहीं समझाया जा सकता। अनुभव ही महान् है। निर्भयता का वर्णन आखिर कैसे हो सकता है? निर्भयता सिखाई कैसे जा सकती है? यह वर्णन अभिव्यक्ति का कोई जादूगर यदि कर ले, तो कर ले - मेरे बूते की बात यह है नहीं। मेरा तरीका तो बड़ा ही सीधा और सरल है। साक्षात् मौत को सामने देखकर भी जिसकी धड़कन न बढ़े वह निर्भय!''
ग्रामीण साथी को उन्होंने आदेश दिया, ''लाश ले आओ।''
ग्रामीण आगे चला। मैं उसके पीछे चलने लगा। मेरी मनोदशा ऐसी थी, जैसे कुछ सोचता न होऊँ, समझता न होऊँ।
फिर मैंने लाश के बारे में सोचना शुरू किया और मौत के बारे में।
अपनी निर्भयता को साबित करने के लिए जैसे मैं बेताब हुआ जा रहा था। इसीलिए जान-बूझकर मैं लाश और मौत के बारे में सोच रहा था। मृत्यु एक अत्यन्त स्वाभाविक स्थिति है। उससे डरने का कदापि कोई अर्थ नहीं। यह बात मैंने केवल सोची नहीं, बल्कि समझ भी ली। केवल समझी नहीं, स्वीकार भी कर ली। ग्रामीण ने एक जगह बैठकर धूल और रेत हटाना शुरू किया। नीचे तिरपाल था और उसके नीचे लाश!
जीवन में पहली बार मैंने लाश को स्पर्श किया। मुझे रंचमात्र भी रोमांच न हुआ। जैसे मामूली गद्दे को उठा रहा होऊँ, वैसे मैंने ग्रामीण की सहायता से लाश को उठा लिया। उसे हम गुरुदेव के सामने ले आये।
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