आचार्य श्रीराम किंकर जी >> चमत्कार को नमस्कार चमत्कार को नमस्कारसुरेश सोमपुरा
|
1 पाठकों को प्रिय 149 पाठक हैं |
यह रोमांच-कथा केवल रोमांच-कथा नहीं। यह तो एक ऐसी कथा है कि जैसी कथा कोई और है ही नहीं। सम्पूर्ण भारतीय साहित्य में नहीं। यह विचित्र कथा केवल विचित्र कथा नहीं। यह सत्य कथा केवल सत्य कथा नहीं।
''फिर भी, गुरुदेव....। '' मैंने कहा, ''कहीं हम मुसीबत में न फँस जायें। फौज का सख्त पहरा है। अगर उन्हें सन्देह हो गया...? '' मैं अपनी आवाज में कँपकँपी आने से नहीं रोक पाया था।
''सन्देह कैसा? हमने किसी सैनिक की हत्या तो की नहीं है।' गुरुदेव ने कहा। उन्होंने आग्नेय नेत्रों से उस ग्रामीण को घूरा.... अगर तुमने एक शब्द भी असत्य कहा है...। ''
''नहीं गुरुदेव! ऐसा नहीं है।'' ग्रामीण पूरे विश्वास के साथ बोल रहा था।
''सुरेश! तुम व्यर्थ की चिन्ता में हो। केवल इतना कहो, तैयार हो या नहीं?''
''मैं आपके हर आदेश के लिए प्रस्तुत हूँ।'' मैंने रटारटाया वाक्य दोहराने की तरह कहा।
'ठीक !' और गुरुदेव ने अम्बिका दीदी की ओर देखा, 'तुम सारी तैयारियाँ कर रखो।'
गुरुदेव उठकर चल दिये।
मेरे मन में एक बार फिर यहाँ से भाग जाने का विचार घुमड़ने लगा।
दीदी ने कहा, 'हिम्मत न छोडियेगा। एक अमूल्य अवसर प्रतीक्षा में है।'
० ०
रात के ग्यारह बजे, मन्दिर के पिछले दरवाजे से हम लोग जब बाहर निकले, तब सड़क पर से टैंकों और लॉरियों का काफिला सरहद की तरफ जाने लगा था। फौज के कूच करने की आवाजें भी कितनी डरावनी होती हैं। सन्नाटे में उनका डरावनापन और बढ गया था।
किन्तु..... क्या मैं डर रहा था?
नहीं।
मैं तो श्मशान की ओर बढ़ रहा था - निर्भयता की ओर!
वहाँ अभी मैं पहुँचा भी न था, शव-साधना अभी मैंने की भी नहीं थी और अभी से मुझे निर्भयता का वरदान स्फूर्ति देने लगा था... साहस की अदम्य स्फूर्ति....।
० ० ०
|