आचार्य श्रीराम किंकर जी >> चमत्कार को नमस्कार चमत्कार को नमस्कारसुरेश सोमपुरा
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यह रोमांच-कथा केवल रोमांच-कथा नहीं। यह तो एक ऐसी कथा है कि जैसी कथा कोई और है ही नहीं। सम्पूर्ण भारतीय साहित्य में नहीं। यह विचित्र कथा केवल विचित्र कथा नहीं। यह सत्य कथा केवल सत्य कथा नहीं।
एक लम्बे सन्नाटे के बाद वह दीदी से मुखातिब होकर बोले. ''अम्बिका। अगर तुम हम सबकी भलाई चाहती हो, तो अपने भाई को मेरी नजरों के सामने से हटा लो। बेहतर होगा. इसे तुम सामने की कोठरी में बन्द कर दो। अधिक नहीं, केवल चौबीस घण्टों के लिए। अगर इतना भी तुमसे नहीं हो सकता, तो सबके सब यहाँ से चले जाओ और मुझे शान्ति से मृत्यु की प्रतीक्षा करने दो। यदि कृपण की मृत्यु ही मेरे भाग्य में बदी है, तो इसका भी अब मुझे कोई दुःख नहीं।''
दीदी ने चुपचाप उस युवक को उठाया। उसे वह सामने की कोठरी की तरफ ले गईं। कोठरी में उसे बन्द कर वह निर्विकार सी लौट आई। यह सब ऐसे हुआ, जैसे सम्मोहन के धागों में बँधे हुए दो पुतलों ने आँखें मूँदकर आदेश का पालन किया हो। युवक ने प्रतिकार करना तो दूर, पलक उठाकर किसी की ओर देखा तक नहीं।
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सत्य, असत्य, कर्म. कुकर्म, धर्म, अधर्म इत्यादि दार्शनिक विषयों पर चर्चा कर रहे गुरु चैतन्यानन्द जी के शब्दों को मैं और अम्बिका दीदी ध्यान से सुन रहे थे। तभी, चन्दन का पिता, वह ग्रामीण, आ पहुँचा और हाथ जोडकर बोला, 'गुरुजी! लाश का इन्तजाम हो गया है।?'
मैंने चौंककर ग्रामीण की ओर देखा। एकाध क्षण रुककर वह फिर बोला, ''श्मशान-घाट में नदी की तरफ मैंने उसे छिपा दिया है।''
''लाश किसकी है?'' चैतन्यानन्द जी ने पूछा।
''यह तो पता नहीं।''
''फिर भी?''
''फौज का जो पडाव है, उसके नजदीक मैंने उसे लावारिस पड़े देखा था।''
''किसी सैनिक की लाश तो नहीं है?''
''कोई ग्रामीण ही मालूम पडता है। पता नहीं, कैसे किसकी गोली का शिकार हो गया।''
''इसी गाँव का तो नहीं? ''
''बाहर गाँव का लगता है।''
''हुँ....।'' चैतन्यानन्द जी चुप होकर, सारी स्थिति मन-ही-मन तौलते रहे। सहसा उनकी नजरें मेरी ओर घूमीं, ''सुरेश! तुम तैयार हो? ''
''किन्तु गुरुदेव! जो लाश फौजियों के पडाव के नजदीक से मिली है, कहीं उसके साथ.... कोई पेंच जुडा हुआ न हो....। ''
''लाश लावारिस पड़ी हुई थी, सुरेश।''
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