आचार्य श्रीराम किंकर जी >> चमत्कार को नमस्कार चमत्कार को नमस्कारसुरेश सोमपुरा
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यह रोमांच-कथा केवल रोमांच-कथा नहीं। यह तो एक ऐसी कथा है कि जैसी कथा कोई और है ही नहीं। सम्पूर्ण भारतीय साहित्य में नहीं। यह विचित्र कथा केवल विचित्र कथा नहीं। यह सत्य कथा केवल सत्य कथा नहीं।
''मेरे दो बड़े भाई थे। जब पिता मृत्यु-शैया पर गिरे, तब अनाचार से कमाया हुआ उनका धन हथियाने के लिए मेरे दोनों भाई एक-दूसरे के खून के प्यासे हो गये। धन के प्रति उनकी वासना देखकर मेरा दिल दहल गया। संसार पर से मेरा मन हट गया....।''
''भरी जवानी में ही मैं संसार छोड़कर निकल पड़ा। संन्यासी बनते ही मुझे लगा कि मैं महान हूँ। ईश्वर के बहुत निकट पहुँच गया हूँ।''
''चमत्कार पर चमत्कार दिखाकर लोगों को मैंने स्तब्ध कर दिया। सिद्धियों का घमण्ड मेरे सिर पर सवार हो गया।''
''लेकिन..... एक दिन ऐसा भी आया, जब मैंने सोचा, 'मेरे पिता ने लोगों को लूटकर दौलत इकट्ठी की। मैंने भी लोगों को स्तब्ध करके सिद्ध योगी की ख्याति इकट्ठी की है। संग्रह हम दोनों ने ही किया। मेरे पिता संन्यासी नहीं थे। फिर मैं कैसे संन्यासी हूँ?''
'अम्बिका! सुरेश। सच कहता हूँ उस विचार ने मेरे भीतर जो सन्नाटा खींचा था, वह आज भी टूटा नहीं है।'
''मैं हवा में से पुष्प पैदा कर सकता हूँ। खोपड़ी को अधर में नचा सकता हूँ। मेरी ये सिद्धियाँ वैसी ही हैं, जैसी मेरे पिता की दौलत थी। चमत्कारों के जोर पर अगर मैंने एक रोगी को स्वस्थ किया है, तो बदले में अन्ध-विश्वास के अनेक महारोगी भी मेरे ही कारण पैदा हो गये हैं। चमत्कार देखकर मनुष्य क्या खोता है, स्वयं उसी को पता नहीं चलता, लेकिन.... चमत्कार दिखाकर हम क्या खोते हैं. इसका पता हमें भी कहाँ चल पाता है? मैं विरोधाभासों का पुतला हूँ अम्बिका! शायद इसीलिए जो शिष्य मुझे सर्वाधिक प्रिय हैं, उन्हें भी मैं रंचमात्र भी प्रिय नहीं हूँ। इसीलिए तो.... मेरे शिष्यों ने हमेशा मेरी भावना के, मेरी आशा के विरुद्ध जाने के अवसर ढूँढे हैं। फिर भी, मैं उन्हें दोष नहीं देता। कैसे दूँ? मैंने भी, वास्तव में, सिवा अपनी सिद्धियों के, किसी अन्य से, कभी प्रेम नहीं किय....।''
गुरुदेव के शब्द-शब्द में उनकी व्यथा कॉप रही थी। उनका हर शब्द मानो मेरे सीने को भेद रहा था।
अम्बिका दीदी की सिसकियाँ तेज हो गई थीं।
उनका भाई स्तब्ध बैठा था।
गुरुदेव के शब्द फिर मेरे कानों तक आये. ''मेरी वेदना का सम्मान मेरे शिष्यों ने कभी नहीं किया। मेरी महत्त्वाकांक्षाओं को भी छूने का प्रयास कोई न कर सका। सबने मेरी सिद्धियों को हथिया लेने के लिए सिर्फ पागलों की तरह दौड़ लगाई है। मेरे द्वारा मन्त्रित एक चुटकी धूल पा लेने के लिए शिष्यों ने आकाश-पाताल एक किया है। मेरे मूर्ख भक्त तो ऐसा मान बैठे हैं, जैसे स्वर्ग की चाबी मेरी कमर से बँधी हुई है। मेरे चमत्कारों से साक्षात्कार करने के लिए वे एक-दूसरों पर गिर रहे तो। आह! यह सब क्या है...। ''
गुरुदेव की व्यथा वातावरण में समा नहीं रही थी।
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