आचार्य श्रीराम किंकर जी >> चमत्कार को नमस्कार चमत्कार को नमस्कारसुरेश सोमपुरा
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यह रोमांच-कथा केवल रोमांच-कथा नहीं। यह तो एक ऐसी कथा है कि जैसी कथा कोई और है ही नहीं। सम्पूर्ण भारतीय साहित्य में नहीं। यह विचित्र कथा केवल विचित्र कथा नहीं। यह सत्य कथा केवल सत्य कथा नहीं।
पन्द्रह
शव-साधना से पहले
नौजवान ज्योतिषी के प्राण बचाने के लिए मैंने आर्तनाद-सा किया ''गुरुदेव! गुरुदेव! मत मारिए। जाने दीजिए। उसे माफ कर दीजिए।''
किन्तु गुरुदेव इतने क्रोध में थे कि मेरे किसी शब्द ने उन्हें प्रभावित न किया। मैं फिर से गिड़गिड़ा उठा, ''इतना क्रोध अच्छा नहीं! देखिए, आप काँप रहे हैं।'' मेरा अन्तिम वाक्य, न जाने कैसे, उन्हें प्रभावित कर गया। वह अपने काँपते शरीर की ओर देखने लगे। अगले ही क्षण उन्होंने अपने क्रोध को वश में कर लिया।
''लेकिन इस शैतान को जिन्दा छोड़ना भी खतरनाक है।'' उन्होंने बहुत धीमे स्वर में कहा।
''क्यों न इसे पुलिस के हवाले कर दें? '' मैंने सुझाव दिया।
''नहीं! पुलिस के सामने यह सब-कुछ उगल देगा। जो हम करना चाहते हैं नहीं कर सकेंगे।'' गुरुदेव संयत हो चुके थे, ''पहले तुम अम्बिका को होश में लाने की कोशिश करो।''
कोने में पडे मटके में से मैंने पानी लेकर दीदी के चेहरे पर छींटे मारे। थोड़े प्रयास के बाद वह होश में आ गई। जागते ही उन्होंने दौड़कर गुरुदेव के पैर पकड़ लिए, 'उसका कोई अपराध नहीं। सारा अपराध मेरा है। उसे कुछ न करियेगा। मैं सब स्वीकार करूँगी, गुरुदेव।'
चैतन्यानन्द जी अपने आसन पर धीमे-धीमे बैठ गये। कुछ पलों के लिए सन्नाटा छा गया। दीदी की सिसकियों के सिवा कुछ सुनाई न देता था।
'अम्बिका!' आखिर वह बोले, 'दोष न तेरा है, न तेरे भाई का। दोष तो मेरा ही है।'
'ऐसा न कहिए, गुरुदेव!' दीदी बिलख उठीं।
किन्तु वह कहते रहे- ''मेरे पिता ने अपनी सारी जिन्दगी केवल दौलत कमाने के पीछे तबाह की थी। न जाने किन-किन अनाचारों से उन्होंने गरीबों को लूटकर अपनी तिजोरी भरी थी। मैं तब छोटा ही था....। ''
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