लोगों की राय

आचार्य श्रीराम किंकर जी >> चमत्कार को नमस्कार

चमत्कार को नमस्कार

सुरेश सोमपुरा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :230
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9685
आईएसबीएन :9781613014318

Like this Hindi book 1 पाठकों को प्रिय

149 पाठक हैं

यह रोमांच-कथा केवल रोमांच-कथा नहीं। यह तो एक ऐसी कथा है कि जैसी कथा कोई और है ही नहीं। सम्पूर्ण भारतीय साहित्य में नहीं। यह विचित्र कथा केवल विचित्र कथा नहीं। यह सत्य कथा केवल सत्य कथा नहीं।

उपवास के कारण मेरे शरीर में कमजोरी आ चुकी थी। चलना-फिरना कम हो गया था। दूध देखते ही मतली आने लगती। सैनिकों की वीभत्स लाशें देखकर तो कै ही होने लगती। चैतन्यानन्द जी और दीदी मुझे दिलासा देते। मैं भाँप चुका था कि उन दोनों ने, उस नौजवान के बारे में, एक-दूसरे को कुछ भी ज्ञात नहीं होने दिया है। मैंने भी इस सन्दर्भ का प्रश्न किसी से नहीं किया था।

वह चौथी रात थी।

गुरु चैतन्यानन्द के सामने बैठकर मैं उनका प्रवचन सुन रहा था। अम्बिका दीदी भी उपस्थित थीं। शारीरिक अशक्ति के बावजूद मैं स्वयं में मानसिक शक्ति का संचार स्पष्ट महसूस कर रहा था। ज्यों ही मन शान्त होता, मैं मन्त्र-जाप में जुट जाता। मन ज्यों ही उचटने लगता, गुरुदेव मुझे शान्ति देने के लिए आ पहुँचते। अशान्ति का कारण तो वह स्वयं ही जान लेते।

''कल की साधना हम श्मशान में जाकर करेंगे।'' सहसा वह बोले।

मैंने पूछा, ''दैवी सिद्धि और साधना के लिए प्रेत का सहारा लेना आवश्यक क्यों है?''

''प्रेत? कैसा प्रेत? कौन प्रमाण दे सकता है कि प्रेत होते भी हैं या नहीं।''  

''फिर हम..... श्मशान में जाकर क्यों.....।''

''ताकि मैं तुम्हारी मानसिक शक्ति का प्रमाण पा सकूँ।'' गुरुदेव ने गम्भीरता से उत्तर दिया, ''प्रेतों का अस्तित्व हो चाहे न हो, किन्तु मृत्यु का अस्तित्व तो है न? श्मशान इसी मृत्यु का प्रतीक है। इस प्रतीक के अन्दर घुसकर साधना करने से मृत्यु के भय पर विजय प्राप्त होती है। जैसा कि मैं पहले ही बता चुका हूँ दैवी साधना यदि मानव को निर्भयता न दे, तो उसकी कोई उपयोगिता नहीं है। मैं तुम्हें चरम निर्भयता का वरदान देना चाहता हूँ। इसीलिए कल की साधना हम श्मशान में करेंगे। श्मशान में जाकर बैठना, यह तो केवल बाह्य कर्म है। इसी प्रकार, किसी शव की छाती पर सवार होकर बैठना, यह भी केवल बाह्य कर्म हैं। इस कर्म से हम किसी प्रेत को नहीं, बल्कि स्वयं के साहस को साधते हैं। मैं देखना चाहता हूँ कि आन्तरिक जागरण के लिए जो बाह्य कर्म हम करेंगे, शव-साधना का बाह्य कर्म उसके कैसे संस्कार तुम पर पडते हैं।''

सहसा चैतन्यानन्द जी उठ पड़े। मैंने और अम्बिका दीदी ने उनकी ओर सावधानी से देखा। वह खम्भों की एक कतार के नजदीक से चल रहे थे। दीवार के पास रखा अपना त्रिशूल यह उठा चुके थे। वह आखिरी खम्भे तक पहुँच गये। अचानक उन्होंने खम्भे के पीछे हाथ बढ़ाकर किसी को पकड़ लिया। एक ही झटके में उन्होंने उस व्यक्ति को खींचकर जमीन पर पटक दिया। वह दीदी का भाई था - वही नौजवान!

भयानक क्रोध से चैतन्यानन्द जी थरथर कॉपने लगे। त्रिशूल उठाकर उन्होंने उस नौजवान के सीने पर धर दिया और घोर गर्जना करते हुए बोले, ''शैतान के अवतार ! तेरी मौत ही तुझे यहीं खींचकर लाई है।

अचानक दीदी जोर से चीखीं और बेहोश होकर गिरने लगीं.....।

० ० ०

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

लोगों की राय

No reviews for this book