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आचार्य श्रीराम किंकर जी >> चमत्कार को नमस्कार

चमत्कार को नमस्कार

सुरेश सोमपुरा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :230
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9685
आईएसबीएन :9781613014318

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यह रोमांच-कथा केवल रोमांच-कथा नहीं। यह तो एक ऐसी कथा है कि जैसी कथा कोई और है ही नहीं। सम्पूर्ण भारतीय साहित्य में नहीं। यह विचित्र कथा केवल विचित्र कथा नहीं। यह सत्य कथा केवल सत्य कथा नहीं।

सूर्य पर दृष्टि स्थिर करके वह ऐसे देख रहे थे, जैसे भविष्य को देख रहे हों। वह फिर से बुदबुदाने लगे, ''आज न तो मेरे पास वक्त है, न जीने की तमन्ना है, फिर भी.... एक सुपात्र मैंने अवश्य पा लिया है, जिसे अपनी सारी शक्तियाँ मैं देना चाह रहा हूँ। क्या तुम मेरी सारी शक्तियों को स्वीकार कर पाओगे? ''

''किन्तु, गुरुदेव! आप कैसे कह सकते हैं कि मैं सुपात्र हूँ? आप एक बार धोखा खा ही चुके हैं।''

''इसका निर्णय भविष्य अपने-आप करेगा। अभी तो केवल इतना बताओ तुम्हारे मन में साहस है या नहीं?''

''साहस भी तो आपके आशीर्वाद से मिलेगा।'' मैं नम्रता से बोला।

चैतन्यानन्द जी क्रोध से थरथर कॉप उठे ''मूर्ख! किसी के आशीर्वाद से कुछ नहीं होता। जो होता है, आत्म-विश्वास होता है। यह बात सदा के लिए समझ ले। रहेगा याद?''

''जी, गुरुदेव!'' मैंने हाथ जोडकर, आत्म-विश्वास से कहा। और हम मन्दिर की तरफ लौट पड़े।

अगले तीन दिन मन्त्र-साधना में और घायल सैनिकों की पीड़ा निहारने में ही बीत गये। मन्दिर में हम तीन जने ही रह गये थे - मैं, गुरुदेव और दीदी। हमारी सेवा के लिए एक ग्रामीण रुक गया था। चन्दन नामक वह किशोर भी रुका हुआ था। शेष सब हिजरत कर गये थे। सारा इलाका फौज के कब्जे में था। पूजा के ही बहाने से हमें वहाँ रुकने की अनुमति मिली थी। पाकिस्तान के साथ खुले युद्ध का ऐलान हो चुका था। कच्छ से लेकर कश्मीर तक सरहदें सुलग उठी थीं।

मन्दिर के चौगान में घायल सैनिकों को प्राथमिक उपचार दिया जाता था। जो अधिक घायल होते, उन्हें जोधपुर भेज दिया जाता। लाशें भी अलग-अलग शहरों की ओर रवाना की जातीं। जो लाशें बिल्कुल ही छिन्न-मिन्न हो चुकी होतीं, उन्हें कागजी कार्यवाही के बाद उसी श्मशान में जला दिया जाता। तब मुझे नहीं मालूम था कि गुरुदेव मुझसे शव-साधना करवाने की तैयारी कर चुके थे। विकट शव-साधना........।

० ०

फौज ने यह इलाका सबसे खाली तो करवा लिया है, लेकिन.... क्या दीदी का भाई अभी भी इधर ही कहीं छिपा हुआ नहीं? मेरा दिल कहता था, वह नौजवान यहाँ से गया न होगा।

युद्ध की विभीषिका को उतने नजदीक से देखने का मेरे लिए वह पहला अवसर था। इस बारे में सुना बहुत था और पढा भी बहुत था, किन्तु जब तक छिन्न-विच्छिन्न हो चुके मानव-शरीर अपनी आँखों से न देखे जायें, तब तक विभीषिका का शतांश भी अनुमान नहीं लग पाता।

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