आचार्य श्रीराम किंकर जी >> चमत्कार को नमस्कार चमत्कार को नमस्कारसुरेश सोमपुरा
|
1 पाठकों को प्रिय 149 पाठक हैं |
यह रोमांच-कथा केवल रोमांच-कथा नहीं। यह तो एक ऐसी कथा है कि जैसी कथा कोई और है ही नहीं। सम्पूर्ण भारतीय साहित्य में नहीं। यह विचित्र कथा केवल विचित्र कथा नहीं। यह सत्य कथा केवल सत्य कथा नहीं।
चैतन्यानन्द जी के स्वर में ऐसी व्यथा थी, जिसके हजारों शीतल डंक मुझे सिहराने लगे।
गुरुदेव ने जारी रखा, ''अपनी व्यथा मैंने अम्बिका से छिपाई भी नहीं है। अम्बिका फिर भी न सम्भल सकी। निराश होकर मैंने कहा था, 'अम्बिका! मैं अपनी शक्तियाँ किसी ऐसे व्यक्ति को देना चाहता हूँ जो उनका दुरुपयोग न करे।' पट्टशिष्या होने के नाते स्वयं अम्बिका ने ही उन शक्तियों का उत्तराधिकार पाना चाहा, किन्तु मैंने इन्कार कर दिया। जो मोह-माया के बन्धन न तोड़ सकी, वह मेरे कहे अनुसार ही चलेगी, इसका क्या भरोसा? तब अम्बिका ने मुझसे आग्रह किया कि उसके भाई को मैं विद्याएँ दे दूँ। सचमुच मैं उसके भाई को सब विद्याएँ दे बैठता, किन्तु अभी थोड़ी ही शक्तियाँ उसे मिली होंगी कि उसने ऐसा बरताव शुरू कर दिया, जैसा शैतान ही कर सकता है। मैंने उसे निकाल बाहर किया.... किन्तु कुदरत की लीला भी अद्भुत है। वही नौजवान तुम्हारे आगमन का निमित्त बना। आश्चर्य ही है न? मैंने उस शैतान के इरादों को भाँप लिया है। वह चाहता है कि जब मैं तुम्हें विद्याएँ दूँ तब वह छिप-छिप कर सब देख ले, सुन ले, समझ ले....।''
''लेकिन क्या इससे वह लाभान्वित हो सकता है? '' मैंने पूछा।
''जिस तरह ईश्वर के लिए कुछ असम्भव नहीं होता, उसी तरह शैतान के लिए भी कुछ असम्भव नहीं। अम्बिका और तुम्हारा पीछा करता हुआ वह यहाँ तक तो आ ही पहुँचा है। संन्यासिनी बनने के बाद भी अम्बिका उसके प्रति अपनी मोहमाया को छोड़ नहीं पाई है। वैसे.... अम्बिका को भी मैं कैसे दोषी कह दूँ? जनता को हम जो उपदेश देते हैं, उनका मूल स्वर क्या है? लोगों को हम एक मोह. से छुटकारा दिलाकर दूसरे मोह में फँसाते हैं। जीवन का मोह छोड़कर, मृत्यु के बाद की अलौकिकताओं पर हम लोगों को मोहित करते हैं। हम चाहते हैं कि लोग पृथ्वी के ऐश्वर्य का त्याग करें, ताकि उन्हें कल्पित स्वर्ग में स्थायी ऐश्वर्य मिल सके। अम्बिका ने भी संन्यास लिया है, संसार छोड़ा है लेकिन क्या वह भी सिद्धियों के मोह में फँसी हुई नहीं है? स्वयं मैं कहीं अछूता रह सका? मैं भी सिद्धियों के मोहजाल में फँसा हुआ हूँ।''
वह खामोश हो गये।
हम दोनों चलते ही रहे।
क्षितिज पर सूर्य उभरने लगा था। गुरुदेव ने अचानक मेरा हाथ थाम लिया, ''सामने श्मशान दीख रहा है न? मैंने अपनी पहली साधना वहीं बैठकर की थी। बरसों बाद..... अपनी जिन्दगी से शिकस्त मानकर. उसी श्मशान के आगे आज मैं दुबारा आ खड़ा हुआ हूँ। साधना करने के लिए नहीं, चिता पर चढ जाने के लिए।'' मैं चुप रहा।
उनके भावावेश को शान्त करने का कोई उपाय मेरे पास नहीं था।
|