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आचार्य श्रीराम किंकर जी >> चमत्कार को नमस्कार

चमत्कार को नमस्कार

सुरेश सोमपुरा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :230
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9685
आईएसबीएन :9781613014318

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यह रोमांच-कथा केवल रोमांच-कथा नहीं। यह तो एक ऐसी कथा है कि जैसी कथा कोई और है ही नहीं। सम्पूर्ण भारतीय साहित्य में नहीं। यह विचित्र कथा केवल विचित्र कथा नहीं। यह सत्य कथा केवल सत्य कथा नहीं।

काफी देर तक हम दोनों के बीच चर्चा-विचारणा होती रही। आशीर्वाद देकर वह चले गये। मैं फिर से मन्त्र-साधना में लीन हो गया। रात जब काफी बीत गई, तब मैँ मन्दिर से बाहर निकला।

मैंने अम्बिका दीदी को मन्दिर के पिछवाड़े की ओर बढ़ते देखा। न जाने क्यों मुझे ऐसा लगा, जैसे वह सहज होकर नहीं चल रही हैं। अनायास मैंने अपने कदम उनके पीछे बढ़ा दिये।

मैं एक खम्भे की ओट में खड़ा होकर देखने लगा। कल्याण में जिस नौजवान ज्योतिषी से मेरी मुलाकात हुई थी, यहाँ के स्टेशन की भीड़ में जिसकी झलक देखने की बात मैंने दीदी को बताई थी, वही नौजवान वहाँ एक ओट में खड़ा था। अम्बिका दीदी उसके पास पहुँच चुकी थीं। पल्लू के नीचे से कुछ निकालकर उन्होंने नौजवान को दे दिया। वह कोई खाने की चीज थी। नौजवान ऐसे खाने लगा, जैसे बहुत भूखा हो।

मेरे बदन में झनझनाहट दौड़ गई। इस नौजवान के बारे में जब मैंने दीदी को बताया था, तब उनका चेहरा कैसा फक पड़ गया था। उन्होंने तो इस नौजवान का अस्तित्व ही स्वीकार नहीं किया था। उसी से आज वह चुपके-चुपके मुलाकात कर रही हैं, उसी को वह खाने की कोई चीज दे रही हैं.........।

अनेक विचार मेरे मस्तिष्क में एक साथ कौंध गये। महायोगिनी अम्बिकादेवी का नाम इसी नौजवान के मुँह से मैंने पहली बार सुना था। मुझसे इस नौजवान ज्योतिषी का परिचय क्या केवल एक संयोग था? या किसी साजिश का हिस्सा? इसी ज्योतिषी ने मेरे दिमाग में इस विचार का बीजारोपण किया था कि मैं जाकर अम्बिकादेवी से मिलूँ। उसी बीजारोपण के कारण आज मैं बाल-बच्चों को छोड़कर बीबी और मकान छोड़कर, सैकड़ों किलोमीटर दूर, यहाँ मौजूद था।

रहस्य क्या है?

अम्बिका दीदी जिसके उल्लेख मात्र से घबरा गई थीं, जिसके अस्तित्व को उन्होंने कदापि स्वीकार नहीं किया था, उसी के साथ अभी वह कैसा व्यवहार कर रही हैं? इस लुकाछिपी के व्यवहार से तो लगता है कि दीदी ने गुरु चैतन्यानन्द जी को भी इस नौजवान के बारे में कुछ नहीं बताया है।

लेकिन, न बताया जाने के बावजूद, चैतन्यानन्द जी क्या सब-कुछ जानते नहीं हैं?

वह तो सर्वज्ञ हैं न?

मैं लौट पडा।

न चाहते हुए भी मन इतना अशान्त हो गया था कि कर्ण-पिशाचिनी के जाप पर मैं ध्यान केन्द्रित न कर सका। दीपक की लौ पर त्राटक करके मैंने ध्यान केन्द्रित करना चाहा, किन्तु बेकार। सारी रात इसी तरह गुजर गई।

० ० ०

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