आचार्य श्रीराम किंकर जी >> चमत्कार को नमस्कार चमत्कार को नमस्कारसुरेश सोमपुरा
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यह रोमांच-कथा केवल रोमांच-कथा नहीं। यह तो एक ऐसी कथा है कि जैसी कथा कोई और है ही नहीं। सम्पूर्ण भारतीय साहित्य में नहीं। यह विचित्र कथा केवल विचित्र कथा नहीं। यह सत्य कथा केवल सत्य कथा नहीं।
''मैं आपकी बात समझ नहीं पा रहा हूँ गुरुदेव!' मैंने नम्रता से कहा।
''समग्र ज्ञान मनुष्य के अवचेतन मन पर सूचनाओं द्वारा आरोपित किया जाता है। तुम अपने मन के उद्गम पर विचार करो। तुम्हें पता चलेगा कि तुम्हारा समग्र ज्ञान अन्य मनुष्यों की ओर से प्राप्त सूचनाओं का संकलन ही है। तुम्हारे पास ज्ञान पहले से नहीं था। दूसरों ने तुम्हें सूचनाएँ दे-देकर ज्ञानी बनाया। सूचना एवं आदेशों से मन को संस्कार मिलता है। इन्हीं संस्कारों का सम्बल पाकर मनुष्य अपने जीवन को जीता है।''
''गुरुदेव! आप अगर कोई उदाहरण देकर समझाये. तो आसानी रहेगी।''
''जैसे........ अन्य मनुष्यों ने तुम्हें बचपन से सूचित कर रखा है कि भूत से डरना चाहिए। यह सूचना तुम्हारे मन को इस प्रकार संस्कारित करती है कि तुम सचमुच भूत से डरते रहते हो। तुम अपना पूरा जीवन भूत से डरते हुए जीते हो। भगवान की स्थिति यही है। बचपन से ही तुम्हें सूचित किया गया है कि भगवान से डरो। तुम अपना पूरा जीवन भगवान से डरते हुए जीते हो। जब तक भूत और भगवान. दोनों की असलियत को परीक्षण द्वारा जाँचोगे नहीं, तब तक.......... न तो भूत की ओर से निर्भय हो सकोगे और न भगवान की ओर से।''
''लेकिन, गुरुदेव। ये मन्त्र..........। ''
''मन्त्र मनुष्य को निर्भयता की ओर ले जाते हैं। मन्त्र भूत और भगवान, दोनों की असलियत की जाँच करते हैं।' गुरुदेव ने कहा. 'मन्त्र विशेष प्रकार के शब्दों से बँधे होते हैं। शब्द क्या हैं? शब्द मनुष्य के मन की अभिव्यक्ति हैं। इसीलिए मन्त्र भी मनुष्य के मन के साथ बँधे हुए हैं। मन से ही मन्त्र उठते हैं। मन को ही मन्त्र प्रभावित करते हैं। 'ॐ' को प्रथम शब्द माना गया है। इसीलिए मन्त्रों में 'ॐ' का स्थान सर्वोपरि है।''
''गुरुदेव।'' मैंने कहा, ''आपकी बात सुनते समय तो समझ में आती है, किन्तु सुन लेने के बाद समझ में नहीं आती। आपका आशय मेरे मन और मस्तिष्क को छूता तो है, किन्तु वहाँ ठहरता नहीं है।''
''मैं और स्पष्ट करता हूँ।'' वह बोले, ''मन्त्र देने से पहले साधक के सामने वर्णन किया जाता है कि मन्त्र सध जाने पर उसे कैसी सिद्धियाँ मिल जायेंगी। मन्त्र को निरन्तर रटने से उन्हीं सिद्धियों को प्राप्त करने के लिए साधक का मन तैयार हो जाता है। मन की शक्ति उन सिद्धियों को ग्रहण करने के लिए जाग जाती है। सिद्धियाँ बाहर से आकर मन में नहीं बैठती हैं। वे मन में ही छिपी हुई हैं। वे सुप्त हैं। मन्त्र उन्हीं सुप्त सिद्धियों को जगाते हैं। उन्हें अवचेतन की गहराइयों से निकालकर चेतन के साथ जोड़ते हैं। सारी शक्तियाँ मानव के मन में ही भरी पड़ी है। मानव मन को हम पहचानते ही कितना हैं? मन्त्र हमें अपने मन की पहचान कराते हैं।''
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