आचार्य श्रीराम किंकर जी >> चमत्कार को नमस्कार चमत्कार को नमस्कारसुरेश सोमपुरा
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यह रोमांच-कथा केवल रोमांच-कथा नहीं। यह तो एक ऐसी कथा है कि जैसी कथा कोई और है ही नहीं। सम्पूर्ण भारतीय साहित्य में नहीं। यह विचित्र कथा केवल विचित्र कथा नहीं। यह सत्य कथा केवल सत्य कथा नहीं।
तेरह
फिर वही नौजवान
योग का पूर्वाभ्यास होने के कारण मुझे ध्यान केन्द्रित करने में कोई परेशानी नहीं हुई। थोड़ी ही देर बाद मुझे अपने कानों में घुँघरू की मन्द, मधुर ध्वनि का आभास मिलने लगा। ध्यान जरा भी विकेन्द्रित होता कि वह ध्वनि रुक जाती। फिर वह अनेक मन्त्र-जापों के बाद ही सुनाई देती। वह स्पष्ट होती-न-होती कि ध्यान फिर टूट जाता।
दीदी ने कर्ण-पिशाचिनी देवी का जो वर्णन मुझे सुनाया था, वह मेरी कल्पना को उत्तेजित करने के लिए ही था, यह मैं समझ गया था।
उस कल्पना के आधार पर एक अस्पष्ट आकृति मेरे नेत्रों के समक्ष उभरती और मिट जाती। बारम्बार ऐसा लगता, जैसे सम्पूर्ण शरीर की चेतनाएँ उबलकर, कानों के रास्ते से बाहर निकल जाना चाहती हैं। कभी भय से जीभ सूख जाती।
कभी पलकें इतनी भारी हो जातीं कि उठाये न उठतीं। आँखों को खोले रखने के लिए अस्तित्व की अन्तिम शक्ति भी खर्च कर देनी पड़ती।
जिस दीये पर मैंने ध्यान केन्द्रित किया था, वह कभी तो भयानक ज्वाला की तरह बढ जाता और कभी मात्र नन्हें सितारे की तरह सिमट जाता।
नहीं मालूम, यों कितना समय बीत गया। अचानक घुँघरुओं की झंकार के बदले भयानक गुर्राहट और चीत्कार-सा सुनाई दिया। मैं चौक गया। गौर से सुनने पर ऐसा लगा, जैसे भारी वजन के वाहन बाहर से गुजर रहे हों, आसमान में वायुयान झपट रहे हों........।
मैं बाहर निकला।
मन्दिर के नजदीकी रास्ते पर से भारी टैंक और खटारे गुजर रहे थे। खटारों में सैनिक ठुँसे हुए थे। मटमैले रंग के तिरपाल से टैंकों और खटारों को ढाँक दिया गया था। राजस्थान के उस क्षेत्र में वृक्ष नहीं के ही बराबर होने के कारण, टैंकों और खटारों की गतिविधि दुश्मन के किसी उड़ते हवाई-जहाज को आसानी से दिखाई पड जाती, यदि उन्हें तिरपाल से ढका न गया होता।
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