आचार्य श्रीराम किंकर जी >> चमत्कार को नमस्कार चमत्कार को नमस्कारसुरेश सोमपुरा
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यह रोमांच-कथा केवल रोमांच-कथा नहीं। यह तो एक ऐसी कथा है कि जैसी कथा कोई और है ही नहीं। सम्पूर्ण भारतीय साहित्य में नहीं। यह विचित्र कथा केवल विचित्र कथा नहीं। यह सत्य कथा केवल सत्य कथा नहीं।
ग्यारह
धूर्त शिष्य और अशान्त गुरु
महायोगिनी अम्बिकादेवी का स्वर जारी था, जिसे मै पूरे मनोयोग से सुन रहा था। 'कर्ण-पिशाचिनी यानी क्या?' महायोगिनी की दृष्टि मुझ पर ठहरी हुई थी, ''कर्ण-पिशाचिनी यानी मनुष्य के मन की असीम शक्ति पर नियन्त्रण! मनुष्य के मन की शक्ति का ही दूसरा नाम है, मनुष्य की कल्पना-शक्ति। इस कल्पना-शक्ति को अभी हम शतांश भी नहीं पहचान पाये हैं। शक्तिशाली मन मनुष्य को ईश्वर बना सकता है, लेकिन यही मन यदि काबू में नहीं है, तो मनुष्य शैतान का रूप भी धर सकता है। मनुष्य की मानसिक शक्ति का विजेता ही कर्ण-पिशाचिनी का साधक बन सकता है।''
'दीदी!' मैंने जिज्ञासा की, ''उस विद्या को कर्ण-पिशाचिनी नाम क्यों दिया गया है? मन पर विजय से आपका आशय क्या है? मैंने अनेक महात्माओं से मन की शक्ति पर प्रवचन सुने हैं। सबका यही कहना है कि चंचल मन को अचंचल, निष्किय कर देना ही मन पर विजय पाना है। क्या आपका आशय भी यही है?''
''नहीं!'' दीदी ने कहा, ''कर्ण-पिशाचिनी का साधक मानता है कि मन की शक्ति को साधकर, उसके जरिए इच्छित कार्य सम्पन्न कर लेने की शक्ति पाना-इसी का दूसरा नाम है मन पर विजय पाना। यानी......... हम मन को निष्किय नहीं करते, बल्कि उसकी चरम और परम सक्रियता को साधकर, उसे मानव-कल्याण के कार्यों में लगा देते हैं। निष्क्रिय कर देने से तो मन सुप्त हो जाता है। किसी भी सुप्त शक्ति का अर्थ ही क्या है? मन जंगली घोड़े जैसा है। यदि उसे बाँधकर रखा जायेगा, तो वह बेकार हो जायेगा। यदि उसे खुला छोड़ दिया जायेगा, तो वह बेकाबू होने लगेगा। लेकिन यदि उसे नियन्त्रण में रखकर प्रशिक्षण दिये जाये? तो वह ऐसे-ऐसे कार्य सहज ही कर दिखायेगा, जो आम आदमी की कल्पना से परे ही होंगे। मन के घोड़े पर सवार होकर तो साधक, क्षण मात्र में ब्रह्माण्ड के आर-पार निकल सकता है।''
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