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आचार्य श्रीराम किंकर जी >> चमत्कार को नमस्कार

चमत्कार को नमस्कार

सुरेश सोमपुरा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :230
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9685
आईएसबीएन :9781613014318

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यह रोमांच-कथा केवल रोमांच-कथा नहीं। यह तो एक ऐसी कथा है कि जैसी कथा कोई और है ही नहीं। सम्पूर्ण भारतीय साहित्य में नहीं। यह विचित्र कथा केवल विचित्र कथा नहीं। यह सत्य कथा केवल सत्य कथा नहीं।

प्रातःकर्मों से निबटकर, एकाध घण्टे बाद, मैं मन्दिर के पीछे के उस तलघर में पहुँच गया। मुझे एक ऐसा सफेद वस्त्र पहनने को दिया गया, जिसमें कहीं कोई सिलाई नहीं थी। रात को श्री चैतन्यानन्द जहाँ बैठे थे, उस स्थान का दरवाजा आज खुला था। एक विचित्र गन्ध, जो शायद रक्त और माँस की थी, मेरी सांसों में घुटने लगी।

सामने एक दीया जल रहा था। उसकी मन्द रोशनी में, दीवार पर अंकित महाकाली की एक आकृति मैंने देखी। लाल कनेर के फूलों की माला, लाल वस्त्र जीभ पर चमचम करती लालिमा, बड़ी-बड़ी कौडियों से बनाई गई आँखें....... सामने ही एक बकरा मरा पडा था। उसकी गर्दन धड़ से जुदा हो चुकी थी। धड़ से बहता रक्त, औंधी पडी एक मानव-खोपड़ी में जमा हो रहा था।

वैसा दृश्य देख मुझे तुरन्त लौट पड़ने की इच्छा हो आई।

''मन को मजबूत कर लीजिए।' दीदी का आदेश सुनाई दिया, ''गुरुदेव पधारने वाले हैं।'

साँस रोककर, मन मसोसकर, वहीं रुके रहने के सिवा मेरे पास अब कोई चारा नहीं था। न चाहने के बावजूद मेरी नजर, बार-बार, बकरे के कटे सिर की तरफ चली जाती थी। मन जुगुप्सा से थरथरा रहा था। यह अहसास भी निरन्तर मिल रहा था कि अम्बिका दीदी व्यंग्य-भरी मुस्कान के साथ मुझी को देख रही हैं। इससे मेरी असहजता और बढ़ रही थी।

चैतन्यानन्द जी के खड़ाऊँ की आवाज सुनाई दी।

आते ही उन्होंने एक हाथ से मेरे सिर के बाल पकड़े और दूसरे हाथ से, एक झटके में, मेरा जनेऊ तोड दिया। अम्बिका दीदी की ओर घूमकर वह बोले, ''दीक्षा देने से पहले हम व्यक्ति के हाथों स्वयं उसी का अन्तिम संस्कार करा देते हैं, लेकिन इस व्यक्ति के साथ ऐसा करने की जरूरत नहीं है।''

सुनकर दीदी की आँखों में भी आश्चर्य के भाव तैरे।

चैतन्यानन्द जी की आँखें मेरे चेहरे पर ठहर गई थीं, ''अपना अन्तिम संस्कार करने के बाद ही यह दीक्षा ली जा सकती है, किन्तु........... तुमसे मैं कुछ और आशा रखता हूँ।''

''जी.........।''  

''तुम्हें केवल एक त्याग करना होगा।''

''प्रस्तुत हूँ गुरुदेव!'' मैंने नतमस्तक होकर कहा।  

''तुम्हारे जीवन की सबसे उत्कट अभिलाषा क्या है? ''  

''महान चित्रकार बनने की।'' मैंने तुरन्त कहा।

''तुम्हें इसी अभिलाषा की आहुति देनी होगी।''

मैं सिहर गया।

चित्रकार बनने के लिए मैंने न जाने कितनी यातनाएँ झेली थीं। न जाने कितने प्रयास किये थे। आज तक जो मैं जीया हूँ इसी आशा में जीया हूँ कि कभी-न-कभी, किसी-न-किसी तरह यह अभिलाषा पूरी होकर रहेगी।

इसी अभिलाषा की आहुति दे दूँ?

अधिक सोच सकूँ इससे पहले ही उन्होंने बकरे के रक्त से भरी उसी मानव-खोपड़ी को मेरे सामने धर दिया और आज्ञा के स्वर में कहा, ''दाहिना हाथ इस रक्त में डुबाओ। फिर, सामने की दीवार पर छाप लगा दो।''

मैंने आदेश का पालन किया।

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