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आचार्य श्रीराम किंकर जी >> चमत्कार को नमस्कार

चमत्कार को नमस्कार

सुरेश सोमपुरा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :230
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9685
आईएसबीएन :9781613014318

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यह रोमांच-कथा केवल रोमांच-कथा नहीं। यह तो एक ऐसी कथा है कि जैसी कथा कोई और है ही नहीं। सम्पूर्ण भारतीय साहित्य में नहीं। यह विचित्र कथा केवल विचित्र कथा नहीं। यह सत्य कथा केवल सत्य कथा नहीं।

राजस्थान की गर्म, उबलती हवा। मन में सुलगता दावानल। नींद कैसे आती? पिछले चौबीस घण्टों में जिस दौर से मैं गुजरा था, उसने मेरा चैन हराम कर दिया था। गजब की सिद्धियाँ। मस्तक पर उनके केवल एक प्रहार से मैंने कैसा विचित्र, विकट, अतीन्द्रिय, अनुभव लिया। क्या वह अनुभव मेरा भ्रम-मात्र था? नहीं... भ्रम कैसे हो सकता है। वह अनुभव तो गुरु के आदेशानुसार. इच्छानुसार था। दूर से ही, उँगली का केवल एक इशारा करके उन्होंने कैसे उस मानव- खोपड़ी को अधर में उठा दिया था। भ्रम कैसा। मैंने अपनी आँखों से पूरे होश में देखा था.....।

सुबह जब हवा का ताप कुछ कम हुआ, तब मैं झपकी ले सका।

कोलाहल ने मुझे जगा दिया। बाहर निकलकर देखा। सुबह निखर चुकी थी। सामने ही सैकड़ों ग्रामीण खड़े दिखाई दिये। घर का पूरा साज-ओ-सामान उनके साथ ही था। स्त्रियाँ और बच्चे अलग टोली बनाकर बैठे थे। चैतन्यानन्द जी और अम्बिका दीदी को कुछ ग्रामीण, भयभीत स्वर में, जाने क्या बता रहे थे। मैं उनके नजदीक पहुँचा।

वे सरहद पर बसे गाँवों के निवासी थे। पाकिस्तानी सैनिकों के आक्रमण के कारण वे पलायन कर रहे थे। हमने मन्दिर के दरवाजे से बाहर निकलकर देखा और भी अनेक लोग इसी तरफ आ रहे थे।

गुरुदेव ने गाँव के स्थानीय लोगों के सहयोग से इन विस्थापितों के खान-पान की व्यवस्था की। मन्दिर में वे, दरअसल इसलिए आये थे कि मन्दिर का कुआँ उनकी पानी की जरूरतों को पूरा कर सकता था। उनके साथ जो ऊँट, गधे व अन्य पशु थे, उन्हें पानी पिलाना कोई छोटी समस्या नहीं थी। इस धमाल में एकाध घण्टा बीत गया। उन ग्रामीणों की यातना देख और सुनकर दिल कॉप उठा। गुरुदेव, दीदी एवं दो अवधूतों के साथ मैं मन्दिर की तरफ लौट आया। सीढ़ियों के पास रुककर चैतन्यानन्द जी बोले, ''यानी.... अब.... हमारी फौज भी इसी ओर से गुजरेगी। उसकी हर प्रकार से सहायता करना हमारा फर्ज होगा। साथ-साथ, मन्दिर के पिछले हिस्से में, हमने जो कार्यक्रम तय किया है, उसी अनुसार साधना भी जारी रहनी चाहिए।''

उन्होंने एकाएक मेरी ओर घूमते हुए पूछा, ''तुम तैयार हो न?''  

मैंने 'हाँ' कही।

विषादयुक्त चेहरे के साथ वह बोले, ''और मैं भी, इस बार, चूकना नहीं चाहता।''

इसके बाद, होंठ कँपाकर वह क्या बुदबुदाये, मैं न समझ पाया। क्या उन्होंने कोई मन्त्र पढ़ा था? पता नहीं।

उन्होंने अपनी जीभ निकालकर, उसके छोर से, नाक को छूने की वही विचित्र हरकत फिर से की।

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