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आचार्य श्रीराम किंकर जी >> चमत्कार को नमस्कार

चमत्कार को नमस्कार

सुरेश सोमपुरा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :230
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9685
आईएसबीएन :9781613014318

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यह रोमांच-कथा केवल रोमांच-कथा नहीं। यह तो एक ऐसी कथा है कि जैसी कथा कोई और है ही नहीं। सम्पूर्ण भारतीय साहित्य में नहीं। यह विचित्र कथा केवल विचित्र कथा नहीं। यह सत्य कथा केवल सत्य कथा नहीं।

वह बुदबुदाने लगे थे- ''यहाँ मिथुन-दृश्य मूर्तिमान हुए हैं। आज का समाज इन्हें अश्लील मानता है। जिस योग से समस्त संसार की उत्पत्ति हुई है, उसी योग को लोग भोग क्यों मानते हैं? इस संयोग को लोग सम्भोग क्यों कहते हैं? सूर्य और पृथ्वी के संयोग से इस जगत में जीव की उत्पत्ति हुई। सूर्य और पृथ्वी में से यदि एक को भी अनुपस्थित रखा जाये, तो क्या जीवन सम्भव होगा? जीवन का रहस्य, अस्तित्व का रहस्य सूर्य और पृथ्वी में छिपा है, किन्तु........ इस सामान्य उत्तर को स्वीकार करने का मन नहीं होता। हमारा प्रश्न ही हमें इतने महत्त्व का लगता है कि उसका सच्चा उत्तर भी हमें इसलिए मान्य नहीं है कि वह एक सामान्य उत्तर है। पुरुष व स्त्री का संयोग ही इस सृष्टि को सदैव युवा रखता है। सबसे बड़ा योग यदि कोई है तो यही संयोग है। अस्तित्व का रहस्य इसी संयोग में छिपा है, किन्तु........... क्या यह भी एक सामान्य उत्तर नहीं? मानव कितना विचित्र है। वह किसी सामान्य से प्रश्न को भी अलौकिक बना सकता है। फिर वह उस अलौकिक प्रश्न का अलौकिक उत्तर ढूँढने निकलता है। उसकी रुचि सच्चे उत्तर में नहीं, अलौकिक उत्तर में होती है। जीवन क्या है? नर-नारी का संयोग ही जीवन है, अस्तित्व है........... यह उत्तर तो आँखों के सामने ही धरा हुआ है। फिर हम उसकी खोज में क्यों भटक रहे हैं?'

मैं आशंकित होने लगा था।

कहीं यह व्यभिचार की सिफारिश की भूमिका तो नहीं है? कापालिकों की पाप लीला का पुनरावर्तन तो नहीं इसमें?

उन्होंने मेरे मन के प्रश्नों को तत्काल भाँप लिया और कहा, ''मैं कापालिकों के साथ बरसों घूमा हूँ। हिमालय और तिब्बत में मैंने अनेक संन्यासियों से संगत  'की है। बड़े-बड़े तान्त्रिकों से मैंने विद्याएँ सीखी हैं। एक इशारे पर मैं अनेक चमत्कार कर सकता हूँ। देख! ''

और उन्होंने एक मानव-खोपड़ी की ओर उँगली से इशारा किया। मेरे आश्चर्य के बीच वह खोपड़ी जमीन से ऊपर उठने लगी और हवा में तैरने लगी। उस दृश्य को मैं स्तब्ध देखता रह गया। कुछ क्षणों बाद चैतन्यानन्द जी ने फिर से इशारा किया और वह खोपड़ी वापस धरती पर आ बैठी।

''ऐसी सिद्धियों के बावजूद.......... अस्तित्व के रहस्य का जो अलौकिक उत्तर तुम पाना चाहते हो, वह तो मेरे पास भी नहीं है। जैसा उत्तर मेरे पास है, वह सच्चा होते हुए भी सामान्य ही है - अलौकिक नहीं। अपने अलौकिक प्रश्न का सामान्य उत्तर तुम कैसे स्वीकार करोगे? जीवन मुझे भी कम रहस्यमय नहीं लगता। कभी वह बेहद जीने लायक लगता है, तो कभी इतना निरर्थक कि क्षण मात्र में इससे मुक्त हो जाने को जी चाहता है। अनेक रसों से भरपूर इस जीवन को नीरस कहने वाले अनेक हैं। वास्तव में, जीवन इतना तेजोमय है कि उसके समक्ष हम सब अन्धे ही हैं। जिस तरह अन्धे, हाथी के किसी एक हिस्से को छूकर ही दावा करने लगते हैं कि उन्होंने पूरे हाथी को समझ लिया है, उसी तरह हम भी जीवन के किसी सूक्ष्म अंश को ही जरा-जरा पहचान पाते हैं, किन्तु दावा कर बैठते हैं कि हमने पूरे जीवन को देख लिया, समझ लिया। जीवन उतना ही गूढ़ है, जितना कि सत्य।' चैतन्यानन्द जी का स्वर अत्यन्त गम्भीर था, -आज जब मैं मृत्यु के द्वार पर खडा हूँ अपनी सब सिद्धियाँ मुझे क्षुद्र लग रही हैं। जीवन में अनेक चमत्कार मैंने किये हैं, लेकिन क्या मैं शान्ति पा सका? मेरा मन उतना ही अशान्त है, जितना कि तुम्हारा! ''

'तो? आगे?' मेरे स्वर में निराशा की झलक थी।

उन्होंने हँसकर कहा, ''चिन्ता की आवश्यकता नहीं है। मैं अपनी सिद्धियाँ तो तुम्हें दूँगा ही, अपनी अशान्ति भी तुम्हें दूँगा।''

० ० ०

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