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आचार्य श्रीराम किंकर जी >> चमत्कार को नमस्कार

चमत्कार को नमस्कार

सुरेश सोमपुरा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :230
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9685
आईएसबीएन :9781613014318

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यह रोमांच-कथा केवल रोमांच-कथा नहीं। यह तो एक ऐसी कथा है कि जैसी कथा कोई और है ही नहीं। सम्पूर्ण भारतीय साहित्य में नहीं। यह विचित्र कथा केवल विचित्र कथा नहीं। यह सत्य कथा केवल सत्य कथा नहीं।

असंख्य मानव-खोपड़ियाँ, न जाने कितने कंकाल, एक भँवर-सा बनाकर मेरे चारों ओर घूम रहे थे। एक भयानक आकृति, जिसके केवल दाँत, जीभ और होंठ ही मुझे नजर आ रहे थे, उन नर-कंकालों में से लाल, चिकने तरल को निचोड़ रही थी। उसकी जीभ और दाँतों पर तरल-ही-तरल था। होंठों के छोरों से भी उसी तरल के रेले बह रहे थे।

लाओ! और लाओ! दो! - उस डरावनी आकृति के मुँह से बारम्बार यही सुनाई पड़ रहा था। जिस तरह हवन की अग्नि में नारियल गिरकर फटता है, उसी तरह उस आकृति के मुख में नर-कंकाल समा-समाकर फट रहे थे। फटने की आवाजें अब मैं स्पष्ट सुन रहा था। उसके भयंकर अट्टहास में मनुष्यों के चीत्कार डूब रहे थे।

मुर्दों की प्रचण्ड भीड़ में धक्के खाता हुआ मैं भी उस वीभत्स आकृति के समीप पहुँच गया। गर्भस्थ शिशु जिस तरल में उतराता है, वही तरल उसकी गर्दन तक छलक रहा था। उसकी साँसों में चिता की गर्मी अनुभव हो रही थी। भस्म होती चमड़ी, माँस और बालों की गन्ध मेरी साँसों को घोंटने लगी थी........।

क्या वह आकृति साक्षात् मौत थी? गर्भ को छूकर ही मौत खड़ी थी। या फिर........ यह सब केवल भ्रम है? जन्म और मृत्यु-केवल भ्रम? मृत्यु भ्रम, तो जन्म भी भ्रम?

अचानक मेरा घिसटना रुक गया। फिर से मैं विशुद्ध अन्धकार के बीच, अधर में लटक गया। प्रश्न नहीं थे। उत्तर नहीं थे। चरम शून्य की वह स्थिति अधिक भयंकर थी।

ऐसी दशा में न जाने कितने युग बीत गये।

और......... फिर से.......... मेरे शरीर ने धरती का स्पर्श किया। मैंने अपने भार को दुबारा अनुभव किया। प्रयत्न करके मैंने आँखें खोल दीं।

चैतन्यानन्द जी शान्त चित्त से मुझे निहार रहे थे। उनसे नजर मिलते ही मैंने पलकें झुका लीं। पहली बार मैंने उन्हें हार्दिकता से नमस्कार किया।

'क्या जीवन का रहस्य जन्म और मृत्यु से परे कहीं छिपा है?' मैंने नम्रता से पूछा।

वह मार्मिक हँसी के साथ बोले, 'कई बार उत्तर हमारी आँखों के सामने ही होता है, लेकिन हम उसे दूर दिगन्त में खोजते रह जाते हैं। हम अपने प्रश्न को इतना अधिक महत्त्व दे बैठते हैं कि उसके सामान्य उत्तर से हमें सन्तोष नहीं मिलता। मृत्यु के बाद अन्धकार है और जन्म से पहले भी अन्धकार था। इसी अन्धकार को हम सदियों से उलीच रहे हैं........ गहरे से और गहरे अन्धकार में हम फँसते जा रहे हैं.........।'

हाथ में एक दीया लेकर वह उठ पड़े। वह दीवार के पास पहुँचे। मैं और अम्बिका दीदी उनके पीछे-पीछे गये।

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