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आचार्य श्रीराम किंकर जी >> चमत्कार को नमस्कार

चमत्कार को नमस्कार

सुरेश सोमपुरा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :230
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9685
आईएसबीएन :9781613014318

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यह रोमांच-कथा केवल रोमांच-कथा नहीं। यह तो एक ऐसी कथा है कि जैसी कथा कोई और है ही नहीं। सम्पूर्ण भारतीय साहित्य में नहीं। यह विचित्र कथा केवल विचित्र कथा नहीं। यह सत्य कथा केवल सत्य कथा नहीं।

थोड़ी देर में उन्होंने नेत्र खोले। सामने धधकती अग्नि उनकी पुतलियों में प्रतिबिम्बित हुई। वहाँ की मन्द रोशनी में वे पुतलियाँ अंगारों की तरह दहकती लग रही थीं।

'अस्तित्त्व का रहस्य........।' दो शब्द बोलकर वह चुप हो गये।

एक ऐसी खामोशी छा गई, जिसे सहना असम्भव था।

जो प्रश्न मेरे मन-मस्तिष्क में बरसों-बरसों से घुमड़ रहा है, क्या उसका उत्तर मैं पा सकूँगा?

मैं अधैर्य से उनकी तरफ ताकने लगा।

'अस्तित्व का रहस्य जानना चाहते हो?' इस बार उन्होंने मेरी आँखों में आँखें डालकर पूछा।

''जी हाँ गुरुदेव! ' मैंने नम्रता से कहा।

उत्तर हमेशा शक्तिशाली को मिलता है। दुर्बल केवल प्रश्न पूछते रह जाते हैं। उत्तर-कभी नहीं पाते। यदि उत्तर चाहिए, तो शक्तिशाली बनो। उनके एक-एक शब्द में दृढ़ता थी।

'जीवन का........ और अस्तित्व का........ रहस्य क्या.......... आपको मिल गया है?' मैंने झिझकते पूछा।

''इसका उत्तर मैं तुम्हें क्यों दूँ? मेरा उत्तर मेरा है, जैसे मेरी मौत। जैसे मेरी जिन्दगी मेरी है, वैसे ही मेरा उत्तर भी मेरा है। हर व्यक्ति को इस प्रश्न का उत्तर स्वयं ढूँढना चाहिए। पूछना किसी से नहीं चाहिए।''

मैं समझ गया, गुरुदेव की जडें बहुत गहरी हैं। मैंने पूछा, ''मुझे दैवी शक्तियाँ चाहिए। कैसे मिलेंगी?

''माँ की कृपा और साधना से।'

''क्या आप कापालिक हैं?' अथवा....... शाक्त हैं? ''

''हम शक्ति के भक्त हैं। शक्ति की आराधना करते हैं।''

''कुविद्या से? ''

''विद्या कभी कुविद्या नहीं होती। हाँ, दुरुपयोग से अवश्य विद्या कुविद्या हो जाती है। सदुपयोग करो। विद्या सुविद्या बनी रहेगी। वह अलौकिक हो जायेगी, दैवी हो जायेगी।''

''मुझे अम्बिका दीदी ने आभास दिया........ आप मुझे विद्याएँ सिखाने के लिए प्रस्तुत हैं। प्रस्तुत ही नहीं, उत्सुक हैं। यहाँ भेंट होने पर मेरे लिए आपका पहला वाक्य यही था, 'आखिर आ ही गये तुम!' क्या यह......... मेरे प्रति पक्षपात नहीं? इस पक्षपात का कारण? ''

वह उन्मुक्तता से खिलखिला कर हँस दिये। बच्चों जैसा निष्कपट हास्य उनके वयस्क चेहरे पर सुशोभित हो उठा। वह बोले, ''यह सब अभी न पूछो, तो ही अच्छा। वक्त आने पर सब पता चल जायेगा।''

मैंने मुद्दे पर आते हुए कहा, ''क्या आप मुझे कर्ण-पिशाचिनी विद्या सिखायेंगे?''

इस बार चैतन्यानन्द जी तो हँसे ही, साथ में अम्बिका दीदी भी हँसी। चैतन्यानन्द जी ने पूछा, ''तुम्हें मालूम भी है, कर्ण-पिशाचिनी क्या है?''

मैंने इन्कार में सिर हिला दिया। गुरुदेव सहसा बहुत गम्भीर हो गये।

० ० ०

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