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आचार्य श्रीराम किंकर जी >> चमत्कार को नमस्कार

चमत्कार को नमस्कार

सुरेश सोमपुरा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :230
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9685
आईएसबीएन :9781613014318

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यह रोमांच-कथा केवल रोमांच-कथा नहीं। यह तो एक ऐसी कथा है कि जैसी कथा कोई और है ही नहीं। सम्पूर्ण भारतीय साहित्य में नहीं। यह विचित्र कथा केवल विचित्र कथा नहीं। यह सत्य कथा केवल सत्य कथा नहीं।

गनीमत। अम्बिका दीदी पीतल के प्याले में चाय लेकर आईं। हँसकर बोलीं,  ''आपको इसकी तलब तो होगी ही।''

''सचमुच इसी की तलब थी। कहकर मैंने चाय पीली, ''दीदी। बहुत अकेलापन महसूस हो रहा है। समझ नहीं पा रहा, सच्ची राह पर हूँ या.........।''  

''पहला ही दिन है न ! क्रमश: व्यस्तता आयेगी, तो सब भूल जायेंगे।'' दीदी बोलीं।

''लेकिन मेरी व्यस्तता किस प्रकार की होगी?'' मैंने व्याकुलता से पूछा और दीदी पर नजर ठहराई।

''क्यों? क्या आपको दैवी शक्तियाँ प्राप्त नहीं करनी?'

''मेरा उत्तर आप जानती हैं।''

''चलिए, गुरुदेव ने आपको याद किया है।'' मैं अम्बिका दीदी के पीछे-पीछे चलने लगा।

वातावरण पूर्णतया शान्त था। आकाश के मन्द प्रकाश के विरुद्ध, मन्दिर का शिखर, किसी छाया-चित्र सा लग रहा था। मन्दिर विशाल था। सीढियाँ चढकर हम गर्भागार की ओर बढ़े। शिव-लिंग के पास एक दीया जल रहा था। ताजा फूलों से किसी ने उसकी अभी-अभी पूजा की थी। अगरबत्ती की सुगन्ध चारों ओर फैली हुई थी। गर्भागार की परिक्रमा-सी करके हम पीछे की तरफ बढे।

वहाँ एक दरवाजे के बाद, सीढ़ियाँ नीचे उतरती दिखाई दीं। अम्बिका दीदी ऐसे झटपट सीढ़ियाँ उतरने लगीं, जैसे चप्पे-चप्पे से परिचित हों।

कुछ नीचे उतरने के बाद हम एक विशाल सभागार में आ पहुँचे। दोनों ओर खम्भों की कतारें थीं, जिनके आलों में दिये जल रहे थे।

पत्थर के एक आसन पर गुरु चैतन्यानन्द जी पद्मासन लगाकर, आँखें मूँदकर बैठे हुए थे। उनके सामने अग्नि प्रज्ज्वलित थी। उसके सुनहरे प्रकाश में वह भव्य और भयानक लग रहे थे। दो युवक और एक युवती उनके सामने बैठकर ध्यान लगा रहे थे। हम दोनों भी उन तीनों के निकट बैठ गये।

दीदी ध्यानमग्न हो गईं।

मैं चारों ओर की दीवारों को देखने लगा। अधूरी या टूटी-फूटी मूर्तियों की कतारों में मिथुन-दृश्य थे। काँपते मन्द प्रकाश में उन्हें स्पष्ट देखना सम्भव न होते हुए भी, शिल्प के अवलोकन की अभ्यस्त मेरी आँखों ने तुरन्त भाँप लिया कि वे मूर्तियाँ किन मुद्राओं की थीं। मैंने फिर से चैतन्यानन्द जी की ओर देखा। पीछे की दीवार पर उनकी विराट परछाईं कॉप रही थी। ऐसा लगता था, जैसे कोई आत्मा शरीर में आकर उन्हें कँपा रही है। एक बड़ा त्रिशूल दीवार से टिका हुआ था। उसकी तीनों नोकें सिन्दूर से रंगी हुई थीं। इसमें भी एक आभास था........ जैसे वे किसी के रक्त से सनी हुई हैं। गुरुदेव पलाँठ लगाकर बैठे थे। उनके पैर के पीछे, उसी मानव-खोपड़ी का ऊपरी हिस्सा दीख रहा था, जिसे मैंने आज सुबह उनके हाथ में देखा था।

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