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आचार्य श्रीराम किंकर जी >> चमत्कार को नमस्कार

चमत्कार को नमस्कार

सुरेश सोमपुरा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :230
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9685
आईएसबीएन :9781613014318

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यह रोमांच-कथा केवल रोमांच-कथा नहीं। यह तो एक ऐसी कथा है कि जैसी कथा कोई और है ही नहीं। सम्पूर्ण भारतीय साहित्य में नहीं। यह विचित्र कथा केवल विचित्र कथा नहीं। यह सत्य कथा केवल सत्य कथा नहीं।

मन्दिर एवं ऊँची चहारदीवारी वाले उस चौगान का ही उल्लेख, चैतन्यानन्द जी ने, 'मठ' के रूप में किया था। मन्दिर के बाईं तरफ नीची छत वाली किसी चाल जैसी दीखती धर्मशाला थी। उसमें लगभग पन्द्रह कमरे थे। हमारे आगमन के बाद, उन कमरों में से, कुछ कोपीनधारी बाहर निकले थे। उनमें से अधिकांश युवा थे। अम्बिका दीदी की अगवानी के लिए एक बूढ़ी स्त्री सामने आई। हमारा सामान, उन दो किशोरों ने, इसी धर्मशाला में रख दिया था। चाल जैसी उस धर्मशाला के एक कमरे में मुझे ठहराया गया, जबकि अम्बिका दीदी की निवास-व्यवस्था उसी बूढ़ी स्त्री के साथ थी। मेरा कमरा था तो काफी छोटा, लेकिन स्वच्छ था। रोशनी की कमी नहीं थी। हवा भी अच्छी आती-जाती थी। कोने में केवल एक चटाई बिछी थी। दीवार पर एक त्रिशूल, सिन्दूर की सधी हुई रेखाओं से, अंकित किया गया था। इसके सिवा, उस कमरे में उल्लेखनीय कुछ भी नहीं था।

ज्यों ही मैंने दरवाजा बन्द किया, मुझे फूट-फूटकर रो पडने की इच्छा हो आई। उस क्षण मैंने अपने-आपको इतना असहाय और अकेला अनुभव किया, जितना पहले कभी नहीं। धीरे-धीरे, बड़ी मुश्किलों से, मैंने अपने साहस को सँजोने का प्रयास किया। तभी एक किशोर, केले के पत्ते पर, दो केले, चावल, उबले हुए आलू और दही ले आया। ऐसे फीके और सादा भोजन को, अपने घर में मैंने हाथ भी न लगाया होता। आज ऐसी कड़ाके की भूख लगी थी कि मैं कुछ भी खाने को तैयार था। उस किशोर ने घड़े से, पानी लेकर मुझे हाथ-पैर, मुँह धोने में मदद की। मैंने पूछा, ''तुम्हारा नाम?''

उसने बडी सौम्यता से हँसकर कहा, 'चन्दन।''

''कही रहते हो?''

''पुराने गाँव में।''

''और....,..... क्या करते हो?''

''गुरूजी का सेवक हूँ।'

''गुरूजी यहीं रहते हैं?' मैंने जानना चाहा।

''नहीं। केवल बारिश के दिनों में आते हैं।''

भोजन के बाद मैंने तृप्ति अनुभव की। चन्दन से पूछा, ''अब मुझे क्या करना है?''

''गुरुजी आप को स्वयं बुलायेंगे। तब तक आराम कीजिए।'

दोपहर के तीन बजे होंगे। मैं चटाई पर लेट गया। थकान बेहद थी किन्तु ऑखें बन्द नहीं कर पा रहा था। विचार, विचार और विचार! न जाने कितने व्यक्ति आँखों के सामने तैरने लगे थे।

कब मैं बेसुध-सा होकर सो गया, पता नहीं। चन्दन ने जब मुझे झकझोर कर जगाया, तब शाम ढल चुकी थी। अन्धकार का साम्राज्य फैलने लगा था।

''चलिए, आपको गुरुजी याद कर रहे हैं।''

मेरा सिर बहुत भारी हो गया था। चाय पीने की आदत थी, लेकिन यहाँ तो एक चम्मच चाय के भी दर्शन दुर्लभ लग रहे थे। बाहर आँगन में बैठकर चेहरे पर छींटे दिये।

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