आचार्य श्रीराम किंकर जी >> चमत्कार को नमस्कार चमत्कार को नमस्कारसुरेश सोमपुरा
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यह रोमांच-कथा केवल रोमांच-कथा नहीं। यह तो एक ऐसी कथा है कि जैसी कथा कोई और है ही नहीं। सम्पूर्ण भारतीय साहित्य में नहीं। यह विचित्र कथा केवल विचित्र कथा नहीं। यह सत्य कथा केवल सत्य कथा नहीं।
ट्रेन रवाना हुई। खिड़की के बाहर जो दुनिया सरक रही थी, उसकी ओर मैं देखता रह गया। अब रात होने वाली थी। यात्रियों ने येन-केन-प्रकारेण अपने लिए लेटने की जगहें बनाईं और सोने लगे। मेरी पलकें गिरना चाहती थीं किन्तु मन सोने से इन्कार कर रहा था। अम्बिकादेवी कोई पुस्तक पढ रही थीं। हम किस स्थान पर जा रहे हैं, वहाँ साधना के नाम पर हमें करना क्या है, इत्यादि पूछने के लिए मैं बहुत अकुला रहा था। डिब्बे की भीड़भाड़ मे ऐसी गढ़ बातें कैसे की जातीं? हम व्यर्थ ही सह-यात्रियों का ध्यान आकर्षित करते। अधिकांश यात्री सो चुके होने पर भी कई अभी जाग रहे थे। उनके कान खड़े हो सकते थे।
फिर भी, मैंने हौले से पूछा. ''अम्बिकादेवी! हम जा कहाँ रहे हैं? वहाँ मुझे करना क्या होगा? ''
मोहक एवं स्वाभाविक मुस्कान के साथ उन्होंने पुस्तक बन्द कर दी, ''मुझे अम्बिकादेवी कहकर न पुकारिए। 'दीदी' कहेंगे तो चलेगा।''
मैंने 'हाँ' में सिर हिलाया। शायद उनके लिए 'दीदी' नाम ही सर्वाधिक उपयुक्त था। दीदी' सम्बोधन स्थिर होते ही मुझे लगा, जैसे हम दोनों के बीच एक बडा फासला दूर हो गया है।
मेरे मन की आशंका को भाँपकर वह बोलीं, ''साधना की राह विकट है। साधना की पहली शर्त है-श्रद्धा। यदि श्रद्धा ही नहीं है, तो वर्षों के तप के बाद भी कोई सिद्धि प्राप्त नहीं होती। श्रद्धा हो, योग्य गुरु का मार्गदर्शन हो, तो यह काम आसान हो जाता है।''
''क्या आप मेरी गुरु बनेंगी?'' मैंने पूछा।
''नहीं। जो मेरे गुरु हैं, वही आपको दीक्षा देंगे। अभी हम मेरे गुरु के पास ही जा रहे हैं। और भी अनेक साधक, जो मेरे गुरु-बन्धु हैं, वहाँ आने वाले हैं।''
''किन्तु आपके गुरु मुझे स्वीकार करेंगे?''
''मुझे श्रद्धा है कि वह स्वीकार कर लेंगे।'' दीदी ने दृढता से कहा, ''असल में..... स्वयं मेरे गुरुदेव ही किसी ऐसे शिष्य की खोज में हैं, जो मेधावी हो स्नेहशील हो, श्रद्धालु हो, दृढ-संकल्प हो, बुद्धिजीवी हो..... यदि कोई ऐसा व्यक्ति मिल जाये, तो गुरुदेव अपनी सारी विद्याएँ उसे दे देना चाह सकते हैं। मैं आपको बताऊँ- जिस तरह औसत समाज में बुद्धिजीवी आसानी से नहीं मिलते, उसी तरह साधकों के समाज में भी... बुद्धिजीवी तो बुद्धिजीवी ही हैं।''
दीदी के इस कथन ने मुझे चौंकाया। क्या दीदी मुझे बेवकूफ बना रही हैं? क्या सचमुच उनके शब्दों का अर्थ वही है, जो मेरी समझ में आ रहा है? मैंने उनकी आंखों में देखा। उन आँखों में ऐसी निर्दोषिता थी कि उनके किसी भी शब्द पर अविश्वास नहीं किया जा सकता था, किन्तु......।
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