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आचार्य श्रीराम किंकर जी >> चमत्कार को नमस्कार

चमत्कार को नमस्कार

सुरेश सोमपुरा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :230
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9685
आईएसबीएन :9781613014318

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यह रोमांच-कथा केवल रोमांच-कथा नहीं। यह तो एक ऐसी कथा है कि जैसी कथा कोई और है ही नहीं। सम्पूर्ण भारतीय साहित्य में नहीं। यह विचित्र कथा केवल विचित्र कथा नहीं। यह सत्य कथा केवल सत्य कथा नहीं।

घर से जब निकला, तब पलटकर देखने का साहस मुझमें नहीं था। मेरी आँखों में जो आंसू थे, उन्हें यदि बच्चों ने देख लिया तो?

घर छोड़ने के इस प्रसंग को, आज, बारह बरस बाद, जब मैं लिख रहा हूँ तब कलम कैसी सहजता से चल रही है। किन्तु उस वक्त मेरी क्या दशा थी? क्या मैं घर वालों के साथ अन्याय नहीं कर रहा हूँ? मुझे जो स्नेह, सहयोग. ममता और सुरक्षा उनसे मिली, सबके बदले में उन्हें मैं क्या दे रहा था? आखिर वह कौन-सी महान उपलब्धि थी, जिसके फेर में मैं उतना बड़ा त्याग कर रहा था? कौन-सी तृष्णा थी, जो मुझे उस हद तक सता रही थी?

सच्चाई तो यह है कि गहरी निराशा मेरे मन में शुरू से बसी हुई थी। विवाह के बाद, थोड़े वक्त के लिए, वह दबी जरूर थी, किन्तु मिटी नहीं थी। उभरने और बाहर आने के लिए वह अकुला रही थी। सुनन्दा और लक्ष्मी के प्रसंग तो केवल बहाने थे। छलावे थे। वे मूल कारण नहीं थे। मूल कारण तो स्वयं मेरे अन्दर मौजूद था। किसी बहाने के आघात की मैं प्रतीक्षा कर रहा था। ज्यों ही आघात लगा, मैं चल निकला।

ऊपरी तौर पर मैं अपने-आप को साहसी साबित कर रहा था, जब कि भीतरी तौर पर मैं सिवा पलायन के और कुछ नहीं कर रहा था। मैं स्वयं जीवन से ही पलायन करके जा रहा था। मैं अपने सपनों पर मोहित था। इतना अधिक कि स्वयं जीवन पर मैं मोहित न हो सका। जीवन को छोड़कर मैं सपनों के पीछे चल दिया। माता-पिता भाई-बहन, पत्नी-बच्चे, मित्र, रिश्तेदार सबको त्यागकर, एक झटके में निकल पड़ने का वह निर्णय, मेरे अवचेतन में, न जाने कब से कुलबुला रहा था। उसी पुराने निर्णय को नया बनाकर मैं निकल पड़ा।

महायोगिनी अम्बिकादेवी के साथ वह यात्रा मैंने ट्रेन से की-तीसरी श्रेणी के डिब्बे में बैठकर। भीड़ बहुत थी, लेकिन अम्बिकादेवी के एक भक्त की कृपा से हमें बैठने की अच्छी जगह मिल गई थी। वह भक्त रेलवे में नौकर था। अपना टिकट मैंने नहीं कटाया था, क्योंकि मुझे मंजिल का ही पता नहीं था। मेरा टिकट अम्बिकादेवी के पास होना चाहिए.. मैंने अनुमान लगाया।

ट्रेन अभी रवाना नहीं हुई थी! एकाएक मैंने घबराहट-सी महसूस की। मंजिल का नाम तो दूर, मुझे यह भी नहीं मालूम था कि, जिस पैशाचिक साधना के लालच से मैं रवाना हो रहा हूँ वह क्या है, कैसी है। केवल एक महायोगिनी के भरोसे मैं निकल पडा हूँ। यह कितना उचित है, कितना अनुचित्? यदि मुझे कुछ हो गया. तो? मेरी बीबी...... मेरे बच्चे.... उनका अपराध क्या है?

सीट छोड़कर मैं अचानक उठ पड़ा।

''क्या हुआ? '' अम्बिकादेवी का स्वर मैंने सुना। अंग-अंग में झनझनाहट दौड़ गई। मैं वापस बैठ गया। मोहमाया के जो तन्तु जुड़ने लगे थे, सब एक झटके में कट गये।

''घर याद आ रहा है? '' अम्बिकादेवी ने पूछा। मैंने जवाब न दिया। जवाब देने की जरूरत भी क्या थी? वह स्वयं सब जान जाती थीं।

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