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आचार्य श्रीराम किंकर जी >> चमत्कार को नमस्कार

चमत्कार को नमस्कार

सुरेश सोमपुरा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :230
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9685
आईएसबीएन :9781613014318

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यह रोमांच-कथा केवल रोमांच-कथा नहीं। यह तो एक ऐसी कथा है कि जैसी कथा कोई और है ही नहीं। सम्पूर्ण भारतीय साहित्य में नहीं। यह विचित्र कथा केवल विचित्र कथा नहीं। यह सत्य कथा केवल सत्य कथा नहीं।

शाम को जब छुट्टी हुई, मैं सोचने लगा, लक्ष्मी के लिए पच्चीस-तीस रुपयों का इन्तजाम कैसे, कहाँ से किया जाये। किसके आगे हाथ फैलाऊँ समझ नहीं पा रहा था। तभी उस झोंपड़े से हृदय-विदारक चीत्कार सुनाई देने लगी, जिसमें लक्ष्मी रहती थी। मैं सन्न रह गया। समझते देर न लगी, लक्ष्मी के लिए अब रुपयों का इन्तजाम करने की जरूरत है ही नहीं। उसका बच्चा अब है ही नहीं। और कल से......... लक्ष्मी के पास नौकरी भी नहीं होगी। जल्द ही वह दिन आ जायेगा, जब स्वयं लक्ष्मी इस दुनिया में कहीं न होगी। उफ!

हताशा और लाचारी में मैं पहले ही से डूबा हुआ था। लक्ष्मी के झोपड़े से उठता एक-एक चीत्कार मेरे सीने के आरपार निकलने लगा। उसी समय मैंने केबिन में बैठकर दो चिट्ठियाँ लिखी। पहली चिट्ठी एक राजनीतिक नेता के नाम थी, जिसमें मैंने बयान किया कि किस प्रकार लक्ष्मी का पति दुर्घटना में मारा गया और किस प्रकार उसका मुआवजा लूट लिया गया। मुझे नहीं मालूम था राजनीतिक नेता उस चिट्ठी पर गौर करेगा या नहीं, लेकिन उस वक्त मुझे कुछ और न सूझ सका। चिट्टी मैंने उसी शाम डाक में छोड़ दी। मन को जरा शान्ति मिली। दूसरी चिट्टी थी सेठ के नाम।

मैंने इस्तीफा दे दिया था।

वहीं से मैं सीधा महायोगिनी के घर गया।

''कहिए! बड़े दिनों बाद? '' उन्होंने देखते ही पूछा।

'निर्णय ले रहा था।' मैंने कहा।

''किस बाबत?''

'आपने कहा था न.., कुदुम्ब का त्याग करना अनिवार्य है........।'

'हाँ, कहा तो था, सत्य कहा था।'

'मैंने कुटुम्ब के त्याग का निर्णय ले लिया है।' मैं गम्भीरता से बोला।  

''सचमुच?''

''यह निर्णय हिमालय की तरह अडिग है। घरबार, संसार, मायामोह, रिश्तेनाते सब छोड़कर मैं आपके साथ साधना करने को तैयार हूँ।'

बड़े मौके से आये हैं आप!. महायोगिनी ने गम्भीरता से कहा. 'तीन दिन बाद ही मैं यहाँ से रवाना होने वाली हूँ।'

'कहाँ जायेंगी? '

'यह पूछना अनावश्यक है। आप साथ चलिए।'

'अवश्य! '

जो भी अधिकतम आर्थिक व्यवस्था परिवार के लिए हो सकती थी, मैंने की। मुझे नहीं मालूम 'था कि जब इस व्यवस्था की तली नजर आने लगेगी, तब मेरे बीबी-बच्चे क्या करेंगे। इस चिन्ता में उलझने की मेरी मनःस्थिति नहीं थी। एक मोटा-सा हिसाब मेरे मन ने लगा लिया था कि बच्चों को लेकर मेरी बीबी मायके चली जायेगी। फिलहाल मैंने उससे कह दिया था कि अचानक एक बहुत अच्छी नौकरी मुझे बम्बई से बाहर मिल गई है और मैं जा रहा हूँ। चिट्ठी वहीं पहुँचकर लिखूँगा।

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