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आचार्य श्रीराम किंकर जी >> चमत्कार को नमस्कार

चमत्कार को नमस्कार

सुरेश सोमपुरा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :230
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9685
आईएसबीएन :9781613014318

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यह रोमांच-कथा केवल रोमांच-कथा नहीं। यह तो एक ऐसी कथा है कि जैसी कथा कोई और है ही नहीं। सम्पूर्ण भारतीय साहित्य में नहीं। यह विचित्र कथा केवल विचित्र कथा नहीं। यह सत्य कथा केवल सत्य कथा नहीं।

''वर्षो की साधना और तपस्या से।' उन्होंने गम्भीरता से कहा। मगर मैं इस उत्तर में रंचमात्र भी मौलिकता के दर्शन न कर सका। यह वह उत्तर था. जो किसी भी ढोंगी द्वारा, किसी भी अन्ध-श्रद्धालु को, युग-युगों से दिया जाता रहा है।  

''क्या मैं भी इन विद्याओं को पा सकता हूँ?'' मैंने फिर एक सीधा प्रश्न किया था।  

''योग्यता चाहिए।''

'कैसी योग्यता?''

''विद्या पा सकने की और कैसी? '' वह हँसी। फिर से उन्होंने पहले जैसा ही चालाकीपूर्ण उत्तर दिया था।

लेकिन मैं, मन-ही-मन, एक फैसला कर रहा था- ''इस सिद्धि को मैं प्राप्त करके रहूँगा।'

महायोगिनी जी के चेहरे पर स्मित की रेखाएँ दौड़ गईं। निश्चित ही उन्होंने मेरे विचार को भाँप लिया था। विदा लेते वक्त मैंने पूछा- ''क्या दुबारा आने की अनुमति है?''

''अवश्य! मैं आपकी प्रतीक्षा करूँगी - रोज!''

और फिर से वही रहस्यमय स्मित उनके होठों पर झलक गया।

'धन्यवाद!' मैंने कहा।

लौटते वक्त मेरा वह सिन्धी मित्र रास्ते भर क्या बड़बड़ाता रहा, मुझे नहीं मालूम। उसकी बड़बड़ाहट का केन्द्र महायोगिनी जी ही रही होंगी, किन्तु वह कह क्या रहा था, मैं ठीक से नहीं जानता।

अगले दिन-दोपहर को, जब मैं अपने साथियों के साथ, लंच ले रहा था स्वाभाविक रूप से ही मैंने अपने बीते कल के अनुभव की चर्चा की।

कल्याण का ही निवासी एक नौजवान साथी तपाक से बोल पड़ा, ''अरे भइया, आप कहीं इस लफड़े में फँसने लगे।''

'क्यों?' मैंने आश्चर्य से पूछा।

''वह औरत तो जादूगरनी है जादूगरनी! ऐसी घाघ और शैतान कि तौबा। जाने कितनों को उसने अपने जादू से खत्म ही कर दिया बिल्कुल मिट्टी में मिला दिया। भूलकर भी उधर न जाइयेगा।''

साथी इतना गम्भीर था कि निश्चित ही उसने अपना हर शब्द पूर्ण विश्वास व जिम्मेदारी के साथ कहा था। किन्तु मैंने भी कल जो देखा था, अपनी ही आँखों से देखा था। साथी जो बता रहा था. उससे बहुत भिन्न था वह। साथी की सलाह मान सकूँ ऐसी स्थिति मेरी थी ही नहीं।

''आप नहीं जानते। उस औरत ने कोई पिशाचिनी सिद्ध कर रखी है।'' साथी के शब्द मेरे कानों में तो प्रवेश कर रहे थे, किन्तु हृदय तक नहीं पहुँच रहे थे पिशाचिनी ही उसका सारा काम करती है। दूसरों के मन की बातें पिशाचिनी ही आकर उसके कानों में बुदबुदा कर बताती है।''

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