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आचार्य श्रीराम किंकर जी >> चमत्कार को नमस्कार

चमत्कार को नमस्कार

सुरेश सोमपुरा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :230
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9685
आईएसबीएन :9781613014318

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यह रोमांच-कथा केवल रोमांच-कथा नहीं। यह तो एक ऐसी कथा है कि जैसी कथा कोई और है ही नहीं। सम्पूर्ण भारतीय साहित्य में नहीं। यह विचित्र कथा केवल विचित्र कथा नहीं। यह सत्य कथा केवल सत्य कथा नहीं।

सहसा किशोर की पलकें बन्द हो गई, जैसे वह बहुत थक गया हो। वह ऐसे सो गया, जैसे महीनों से न सोया हो।

महायोगिनी जी के इस चमत्कार ने मुझे तो अवाक् ही कर दिया था। अन्य व्यक्तियों की भी दशा मेरे जैसी ही थी।

कुछ पल बीते। वातावरण वापस जैसे-का-तैसा हो गया। बिजली जलाई गई। इस रोशनी में भी किशोर ऐसे सोता रहा, जैसे सदियों का थका हुआ हो। किशोर के साथ जो स्त्री आई थी, वह यथासम्भव उसकी माँ थी। वह तो महायोगिनी जी के चरणों में गिरकर लोटपोट ही होने लगी। वह फूट-फूटकर रो रही थी। उसके साथ आये दोनों पुरुषों की भी आँखों से आँसू बह रहे थे। महायोगिनी जी के चेहरे पर रहस्यमयी मन्द मुस्कान उभर आई। महायोगिनी अम्बिकादेवी चुप बैठी रहीं। सहसा उन्होंने मेरी तरफ देखकर पूछा. 'आप यहाँ किस आशा से आये।'  

'जीवन और अस्तित्व का रहस्य समझने के लिए।' मैंने अपने स्बर को संयत रखने के अधिकतम प्रयास के साथ कहा।

''क्या आज तक कोई समझ पाया है?'

''क्या आप समझ चुकी हैं? '' मैंने साहस कर पूछ ही लिया।

''मृत्यु प्राप्त किये बिना जीवन का रहस्य नहीं समझा जा सकता।'' उनके इस जवाब में, जवाब को टालने की चालाकी थी, यह मैंने तुरन्त भाँप लिया।

मैंने पूछा, ''यदि ऐसा ही है, तो.... जीवन के रहस्य को समझने से कोई लाभ है भी?''

''लाभ-हानि का हिसाब हर जगह नहीं लगाया जाता। जीवन का रहस्य कोई व्यापार नहीं है कि आप हमेशा लाभ-हानि के पोथे खोलकर बैठे रहें।' वह बोलीं। इस बार भी मैंने महसूस किया कि उनके जवाब में सिवा शब्दों की चालाकी के कुछ नहीं है। वह मेरे सवालों को जान-बूझकर उड़ा रही थीं। मुझे कुछ निराशा हुई। मैं चुप बैठा रहा। मन में अनेक विचार घुमडने लगे थे। मैंने सोचा कि इन विचारों को महायोगिनी जी यदि स्वय ही पढ लें, तो बेहतर। विचार ऐसे नहीं थे कि जिन्हें शब्दों में बाँधना सम्भव हो पाता।

कुछ देर बाद वह दुबारा बोलीं, ''धैर्य रखिए। जीवन का रहस्य समझने के लिए, कभी-कभी, सारा जीवन ही लगा देना पडता है।''

क्या वह मेरी मृत्यु की ओर संकेत कर रही थीं? पूरे बदन में झुरझुरी-सी दौड गई।

या... उन्होंने वह वाक्य, वैसे ही, सहजता में कह दिया था? क्या मेरे ही उलझे हुए मन ने उस सहज वाक्य को गूढ बना दिया था।

यह विद्या आपने कहाँ से सीखी है?'' एकाएक मैंने पूछा।

''कौन-सी विद्या?'

''किसी के मन की बातें जान लेने की विद्या। जिस अलौकिक शक्ति से आपने उस किशोर को स्वस्थ कर दिया, वह विद्या।' मैंने पूछा, ''आपने इन विद्याओं का अर्जन कैसे किया?''

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