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आचार्य श्रीराम किंकर जी >> चमत्कार को नमस्कार

चमत्कार को नमस्कार

सुरेश सोमपुरा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :230
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9685
आईएसबीएन :9781613014318

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यह रोमांच-कथा केवल रोमांच-कथा नहीं। यह तो एक ऐसी कथा है कि जैसी कथा कोई और है ही नहीं। सम्पूर्ण भारतीय साहित्य में नहीं। यह विचित्र कथा केवल विचित्र कथा नहीं। यह सत्य कथा केवल सत्य कथा नहीं।

तीन

कातर किशोर

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''मेरी शरण का क्या अर्थ? शरण तो ईश्वर की है.....'' महायोगिनी ने कहा और ईश्वर के संकेत में. आकाश की ओर उँगली उठा दी। फिर उन्होंने बगल में बैठी युवती को इशारा किया। युवती ने सब रोशनियाँ बुझा दीं। अन्धकार में एक दीया जलाया गया। उसकी मन्द रोशनी में वातावरण रहस्यमय हो गया।

मैंने तो अपनी विचार-प्रक्रिया ही रोक दी थी। ज्यों ही कोई विचार करूँगा, त्यों ही महायोगिनी जी उसे भाँप लेंगी, यह मैं जान गया था। बेहतर यही था कि केवल एक दर्शक की हैसियत से, जो हो रहा था. देखता जाऊँ।

महायोगिनी जी अब सरककर आगे आ गई थीं। पदमासन लगाकर वह तनकर बैठ गई थीं। अपने दोनों हाथ परस्पर समानान्तर रखकर उन्होंने ऊपर उठाये। ये हाथ उन्होंने किशोर के शरीर पर स्थिर कर दिये। उनका चेहरा जरा आकाश की ओर उठ गया था। आँखें खुली थीं, लेकिन निर्जीव-सी होकर न जाने किस अन्तरिक्ष में खो गई थीं। कुछ पलों बाद उनके होंठ थरथराने लगे। न जाने क्या मन्त्र उन्होंने पढ़ा। होंठ शान्त हो गये।

अचानक उनके हाथों की छत्रछाया में पड़ा वह किशोर हिलने लगा। उसके निर्जीव हाथ-पैरों में चेतना आ गई। वे सिहरने लगे। उसका सिकुड़ा और जकड़ा हुआ बदन मानो एक बार फिर जीवन्त होकर फैल जाना चाहता था। किशोर का अंग-अंग मानो जम्हाई-सी लेना चाह रहा था। सब स्तब्ध होकर किशोर की तड़पन-युक्त हरकतों को देखते रह गये।

उसके दाहिने हाथ की जो उँगलियाँ बिल्कुल टेढ़ी हो चुकी थीं, वे धीरे-धीरे सीधी होने लगीं। उसका हाथ, जो कोहनी के पास से टेढ़ा हो गया था. क्रमश: सीधा होने लगा। इसी तरह, उसके पैरों पर कसे अदृश्य शिकंजे ने भी क्रमश: खुलना शुरू कर दिया। पेट, छाती, कमर इत्यादि सब कुछ मानो यथास्थान पहुँचने लगा। गर्दन आत्म-विश्वास से तन गई। चेहरे पर राहत के भाव उभरने लगे। पलकों ने झपकना शुरू कर दिया। अत्यधिक चंचल, बेकाबू पुतलियाँ जैसे अनायास काबू में आ गईं।

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