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चमत्कारिक दिव्य संदेश

उमेश पाण्डे

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :169
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9682
आईएसबीएन :9781613014530

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सम्पूर्ण विश्व में भारतवर्ष ही एक मात्र ऐसा देश है जो न केवल आधुनिकता और वैज्ञानिकता की दौड़ में शामिल है बल्कि अपने पूर्व संस्कारों को और अपने पूर्वजों की दी हुई शिक्षा को भी साथ लिये हुए है।

सुश्रुत में 5 में से अस्त्र चिकित्सा सम्बन्धी मुख्य रूप से 2 विभाग हैं। इस प्रकार अस्त्र चिकित्सा ही सुश्रुत का प्रधान विषय है। सुश्रुत ने अस्त्र चिकित्सा को सर्वश्रेष्ठ माना है। उनका कहना है कि अस्त्र चिकित्सा ही आदि चिकित्सा है। इसमें अनुमान की कतई गुजाइश नहीं है।

सुश्रुत तथा उसके बाद के भारतीय प्राचीन आयुर्वेद ग्रन्थों में शल्य क्रियार्थ प्रयुक्त अस्त्रों को दो विभागों में विभक्त किया गया है। प्रथम विभाग में उन अस्त्रों का वर्णन किया गया है जो अधिक तेज नहीं हैं जबकि अधिक तेज औजारों का वर्णन अलग से किया गया है। कम तेज अस्त्रों में मुख्यत: चिमटी, संडसी, पिचकारी, चमचा, सलाई, सुई आदि का वर्णन है जबकि तेज धारदार औजारों के अन्तर्गत चाकू कैंची, धारदार सलाइयाँ आदि शामिल हैं।

ऐसे कम से कम 125 किस्म के औजारों का वर्णन ग्रन्थों में समाविष्ट है। ग्रन्थों से यह पूर्ण स्पष्ट होता है, कि मोतियाबिन्द को शल्य क्रिया द्वारा निकालने का श्रेय काफी पहले सुश्रुत को मिल चुका था। यही नहीं, एक स्थान से त्वचा निकाल कर, उसे दूसरे स्थान पर चिपका कर ग्राफ्टिंग का जो कार्य आज के शल्य चिकित्सक कर रहे है, और इसे आधुनिक शल्य कौशल का जामा पहना रहे हैं, सुश्रुत इसे सदियों पूर्व कर चुका था। जर्मनी के डी0 हिचवर्ग ने एक स्थान पर लिखा है ग्राफ्टिंग की यह क्रिया यूरोपियनों ने भारतवर्ष से सीखी है।

इस प्रकार इस चिकित्सा की प्राचीनता और उद्गम भारत से ही हुआ, यह सिद्ध हो जाता है। आइए, अब आपको यह भी बताते चलें कि प्राचीन काल में शल्य क्रिया किस प्रकार होती थी?

प्राचीन भारत में रोगी का रोग तथा बलाबल देखकर, उसकी शल्य चिकित्सा की जाती थी। जिस प्रकार आज के युग में इस क्रिया के लिए ऑपरेशन थिएटर होता है, और जिसे काफी स्वच्छ और कीटाणुविहीन रखा जाता है उसी प्रकार उस समय भी शल्य क्रिया कक्ष होते थे। यही नहीं आज ही के समान शल्य क्रिया करते समय अनेक नियमों का कड़ाई से पालन किया जाता था। शल्य क्रिया के पूर्व शल्य क्रिया कक्ष को विभिन्न धूम्र-प्रयोगों के द्वारा कीटाणुरहित किया जाता था। शल्य चिकित्सक क्रिया के दौरान स्वच्छ और विशेष प्रकार से धूपित सुगन्धित वस्त्र पहनते थे। चिकित्सकों को दाढ़ी और सिर के बाल छोटे रखने पड़ते थे तथा उन्हें क्रिया के पूर्व अपने नखों को काट कर हाथों को विशेष रूप से स्वच्छ रखना पड़ता था। रोगियों में से कुछ को शल्य क्रियाओं के पूर्व हल्का भोजन दिया जाता था, तो वहीं कुछ शल्य क्रियाएँ खाली पेट रखकर सम्पन्न की जाती थीं।

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