ई-पुस्तकें >> चमत्कारिक दिव्य संदेश चमत्कारिक दिव्य संदेशउमेश पाण्डे
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सम्पूर्ण विश्व में भारतवर्ष ही एक मात्र ऐसा देश है जो न केवल आधुनिकता और वैज्ञानिकता की दौड़ में शामिल है बल्कि अपने पूर्व संस्कारों को और अपने पूर्वजों की दी हुई शिक्षा को भी साथ लिये हुए है।
बौद्ध काल के पूर्व से ही हिन्दू अस्त्र चिकित्सा अपनी चरम सीमा पर थी। डी0 हार्नली ने अपनी पुस्तक प्राचीन भारत की औषधियों का अध्ययन में लिखा है कि बौद्ध जातक पुस्तकों में यह बात विस्तार से लिखी है। बौद्धकाल में काशी तथा तक्षशिला मेंदो विद्यापीठ थे, जिनमें सभी विषयों की उत्तम शिक्षा दी जाती थी। इनके शिक्षक विश्वविख्यात विद्वान थे।
बौद्धकालीन सुप्रसिद्ध चिकित्सक जीवक तक्षशिला का ही विद्यार्थी था। उसे मस्तिष्क की चीरफाड़ में महारत हासिल थी। यह बात हमारे धर्मग्रन्थों में स्पष्ट वर्णित है, कि जब आयुर्वेद शास्त्र का लोप हो गया, तब रोगियों को पीड़ा मुक्त करने के लिए देव तथा दानवों ने सारी वनौषधियों को समुद्र में डाल कर मंथन किया। जिससे 14 रत्न निकले। उन रत्नों में धन्वन्तरि और अमृत भी थे।
धन्वन्तरि का प्रादुर्भाव मानवों को रोगमुक्त करने, तथा चिकित्सा शास्त्र की शिक्षा देने के लिए ही हुआ था। एक बार ऋषियों ने धन्वन्तरि के पास कुछ लोगों को इस बात की प्रार्थना करने के लिए भेजा कि वे कृपा करके चिकित्साशास्त्र की शिक्षा दें।
उनकी प्रार्थना पर, प्रार्थियों में से धन्वन्तरि ने महर्षि सुश्रुत व चरक को चिकित्सा शास्त्र की शिक्षा देने को चुना। डाँ0 वाईज 'हिन्दू मेडिसिन' में लिखते हैं, कि धन्वन्तरि के पास चिकित्सा शास्त्र की शिक्षा ग्रहण करने हेतु जब शिष्य पहुँचे तब धन्वन्तरि ने उनसे पूछा- 'मैं पहले किस विषय की शिक्षा दूँ?'
शिष्यों ने उत्तर दिया- 'अस्त्र चिकित्सा की।' क्योंकि पहले लोग बीमार कम पड़ते थे, किन्तु घावचोटादि से जरूर ग्रसित होते थे। इन व्याधियों से मुक्ति का सुगम उपाय शल्य चिकित्सा ही था।
इस प्रकार धन्वन्तरि ने सुश्रुत को अस्त्र चिकित्सा (शल्य चिकित्सा) की तथा चरक को औषधियों का विस्तृत ज्ञान दिया। इसीलिए सुश्रुत रचित सुश्रुत संहिता में भारतीय अस्त्र चिकित्सा जर्राही (सर्जरी) का वर्णन है और महर्षि चरक रचित चरक संहिता में औषधियों का विस्तृत विवेचन है।
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