ई-पुस्तकें >> चमत्कारिक दिव्य संदेश चमत्कारिक दिव्य संदेशउमेश पाण्डे
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सम्पूर्ण विश्व में भारतवर्ष ही एक मात्र ऐसा देश है जो न केवल आधुनिकता और वैज्ञानिकता की दौड़ में शामिल है बल्कि अपने पूर्व संस्कारों को और अपने पूर्वजों की दी हुई शिक्षा को भी साथ लिये हुए है।
चीरा लगाने के पूर्व बेहोश करने की प्रक्रिया भी अपनाई जाती थी। भोज प्रबन्ध नामक ग्रंथ (जिसका रचना काल सन् 980 माना गया है) में श्वास खींच कर बेहोश करने का जिक्र आया है। बौद्धकाल में भी ऐसी ही प्रथा थी। इस प्रक्रिया को सम्मोहिनी कहा जाता था। इस प्रक्रिया से हालाँकि रोगी का सारा शरीर सुन्न नहीं होता था, इसलिए उसे कष्ट भी होता था। इस प्रक्रिया से फिर भी उसे कुछ राहत तो रहती ही थी।
बौद्धकाल के अन्तिम दिनों में भारतीय शल्य चिकित्सा का ह्रास होने लगा। लोग छुआछूत का ढोंग करने लगे। मुर्दे को स्पर्श कर लेने के बाद उसके प्रायश्चित की प्रक्रिया जटिल होने लगी और इस प्रकार चिकित्सा शास्त्र का अध्ययन केवल किताबी ज्ञान में परिणित होकर रह गया। शल्य कर्म लगभग बन्द सा हो गया वरना क्या मजाल थी कि न्यूटन से बहुत समय पहले ही गुरुत्वाकर्षण का ज्ञान रखने वाले भारतीयों के सामने भारत की ही विधाओं को दूसरे अपनी कहने का गौरव हासिल कर पाते।
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