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आत्मतत्त्व
आत्मतत्त्व
प्रकाशक :
भारतीय साहित्य संग्रह |
प्रकाशित वर्ष : 2016 |
पृष्ठ :109
मुखपृष्ठ :
ईपुस्तक
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पुस्तक क्रमांक : 9677
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आईएसबीएन :9781613013113 |
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आत्मतत्त्व अर्थात् हमारा अपना मूलभूत तत्त्व। स्वामी जी के सरल शब्दों में आत्मतत्त्व की व्याख्या
आत्मा की मुक्ति
जिस प्रकार हमें आँख के होने का ज्ञान उसके कार्यों द्वारा ही होता है, उसी प्रकार हम आत्मा को बिना उसके कार्यों के नहीं देख सकते। इसे इन्द्रियगम्य अनुभूति के निम्न स्तर पर नहीं लाया जा सकता। यह विश्व की प्रत्येक वस्तु का अधिष्ठान है, यद्यपि यह स्वयं अधिष्ठानरहित है। जब हमें इस बात का ज्ञान होता है कि हम आत्मा हैं, तब हम मुक्त हो जाते हैं। आत्मा कभी परिवर्तित नहीं होती। इस पर किसी कारण का प्रभाव नहीं पड़ सकता, क्योंकि वह स्वयं कारण है। यह स्वयं ही अपना कारण है। यदि हम अपने में कोई ऐसी चीज प्राप्त कर लें, जो किसी कारण से प्रभावित नहीं होती, तो हमने आत्मा को जान लिया।
मुक्ति का अमरता से अविच्छिन्न सम्बन्ध है। मुक्त होने के लिए व्यक्ति को प्रकृति के नियमों के परे होना चाहिए। नियम तभी तक है, जब तक हम अज्ञानी हैं। जब ज्ञान होता है, तब हमें लगता है कि नियम हमारे भीतर की मुक्ति के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। इच्छा कभी मुक्त नहीं हो सकती, क्योंकि वह कार्य और कारण की दासी है। किन्तु, इच्छा के पीछे रहनेवाला 'अहं' मुक्त है और यही आत्मा है। 'मैं मुक्त हूँ’ - यह वह आधार है जिस पर अपना जीवन निर्मित करके उसका यापन करना चाहिए। मुक्ति का अर्थ है अमरता।
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