धर्म एवं दर्शन >> आत्मतत्त्व आत्मतत्त्वस्वामी विवेकानन्द
|
9 पाठकों को प्रिय 27 पाठक हैं |
आत्मतत्त्व अर्थात् हमारा अपना मूलभूत तत्त्व। स्वामी जी के सरल शब्दों में आत्मतत्त्व की व्याख्या
हमारे बन्धन का कारण यही है। हम लोग सदा मन से तथा मन के क्रियात्मक परिवर्तनों से अपना तादात्म्य कर लेते हैं।
मनुष्य का स्वतन्त्र कर्तृत्व आत्मा में प्रतिष्ठित है और मन के बन्धन के बावजूद आत्मा अपनी मुक्ति को समझते हुए बराबर इस तथ्य पर बल देती रही है, 'मैं मुक्त हूँ! मैं हूँ, जो मैं हूँ! मैं हूँ, जो मैं हूँ।' यह हमारी मुक्ति है। आत्मा - नित्य मुक्त, असीम और शाश्वत - युग-युग से अपने उपकरण मन के माध्यम से अपने को अधिकाधिक अभिव्यक्त करती आयी है। तब प्रकृति से मानव का क्या सम्बन्ध है? निकृष्टतम प्राणियों से लेकर मनुष्यपर्यन्त आत्मा प्रकृति के माध्यम से अपने को अभिव्यक्त करती है। व्यक्त जीवन के निकृष्टतम रूप में भी आत्मा की उच्चतम अभिव्यक्ति अन्तर्भूत है और विकास कही जानेवाली प्रक्रिया के माध्यम से वह बाहर प्रकट होने का उद्योग कर रही है।
विकास की भी प्रक्रिया अपने को अभिव्यक्त करने के निमित्त आत्मा का संघर्ष है। प्रकृति के विरुद्ध यह निरन्तर चलते रहने वाला संघर्ष है। मनुष्य आज जैसा है, वह प्रकृति से अपनी तद्रूपता का नहीं, वरन् उससे अपने संघर्ष का परिणाम है। हम यह बहुत सुनते हैं कि हमें प्रकृति के साथ सामंजस्य करके और उससे समस्वरित होकर रहना चाहिए। यह भूल है। यह मेज, यह घड़ा, खनिज पदार्थ, वृक्ष सभी का प्रकृति से सामंजस्य है। पूरा सामंजस्य है, कोई वैषम्य नहीं। प्रकृति से सामंजस्य का अर्थ है गतिरोध, मृत्यु। आदमी ने यह घर कैसे बनाया? प्रकृति से समन्वित होकर? नहीं। प्रकृति से लड़कर बनाया। मानवीय प्रगति प्रकृति के साथ सतत संघर्ष से निर्मित हुई है, उसके अनुसरण द्वारा नहीं।
० ० ०
|