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आत्मतत्त्व
आत्मतत्त्व
प्रकाशक :
भारतीय साहित्य संग्रह |
प्रकाशित वर्ष : 2016 |
पृष्ठ :109
मुखपृष्ठ :
ईपुस्तक
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पुस्तक क्रमांक : 9677
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आईएसबीएन :9781613013113 |
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आत्मतत्त्व अर्थात् हमारा अपना मूलभूत तत्त्व। स्वामी जी के सरल शब्दों में आत्मतत्त्व की व्याख्या
एक अन्य दृष्टान्त लो - यदि मैं दस दिनों तक निराहार रहूँ, तो मैं सोच न सकूँगा। मन में भूले-भटके, इने-गिने विचार आ जायँगे। मैं बहुत अशक्त हो जाऊँगा और शायद अपना नाम भी न जान सकूँगा। तब मैं थोड़ी रोटी खा लूँ तो कुछ ही क्षणों में सोचने लगूंगा। मेरी मन की शक्ति लौट आयेगी। रोटी मन बन गयी। इसी प्रकार मन अपने स्पन्दन की मात्रा कम कर देता है और शरीर में अपने को अभिव्यक्त करता है, तो जड़ पदार्थ बन जाता है।
इनमें पहले कौन हुआ - जड़ वस्तु या मन, इसे मैं सोदाहरण बताता हूँ। एक मुर्गी अण्डा देती है। अण्डे से एक और मुर्गी पैदा होती है और फिर इस क्रम की अनन्त शृंखला बन जाती है। अब प्रश्न उठता है कि पहले कौन हुआ, अण्डा या मुर्गी? तुम किसी ऐसे अण्डे की कल्पना नहीं कर सकते, जिसे किसी मुर्गी ने न दिया हो और न किसी मुर्गी की कल्पना कर सकते हो, जो अण्डे से न पैदा हुई हो। कौन पहले हुआ, इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता। करीब-करीब हमारे सभी विचार मुर्गी और अण्डे के गोरखधन्धे जैसे हैं।
अत्यन्त सरल होने के कारण महान् से महान् सत्य विस्मृत हो गये। महान् सत्य इसलिए सरल होते हैं कि उनकी सार्वभौमिक उपयोगिता होती है। सत्य स्वयं सदैव सरल होता है। जटिलता मनुष्य के अज्ञान से उत्पन्न होती है।
मनुष्य में स्वतन्त्र कर्ता मन नहीं है, क्योंकि वह तो आबद्ध है। वहाँ स्वतन्त्रता नहीं है। मनुष्य मन नहीं है, वह आत्मा है। आत्मा नित्य मुक्त, असीम और शाश्वत है। मनुष्य की मुक्ति इसी आत्मा में है। आत्मा नित्य मुक्त है, किन्तु मन अपनी ही क्षणिक तरंगों से तद्रूपता स्थापित कर आत्मा को अपने से ओझल कर देता है और देश, काल तथा निमित्त की भूलभुलैया - माया में खो जाता है।
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