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आत्मतत्त्व
आत्मतत्त्व
प्रकाशक :
भारतीय साहित्य संग्रह |
प्रकाशित वर्ष : 2016 |
पृष्ठ :109
मुखपृष्ठ :
ईपुस्तक
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पुस्तक क्रमांक : 9677
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आईएसबीएन :9781613013113 |
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आत्मतत्त्व अर्थात् हमारा अपना मूलभूत तत्त्व। स्वामी जी के सरल शब्दों में आत्मतत्त्व की व्याख्या
प्राच्य दार्शनिकों ने इस मत को स्वीकार किया, अथवा यों कहो कि इसका प्रतिपादन किया कि मन तथा इच्छा देश, काल एवं निमित्त के अन्तर्गत ठीक उसी प्रकार है, जैसे तथाकथित जड़ पदार्थ हैं। अतएव, वे कारणता के नियम में आबद्ध हैं। हम काल में सोचते हैं, हमारे विचार काल में आबद्ध हैं; जो कुछ है, उन सब का अस्तित्व देश और काल में है। सब कुछ कारणता के नियम से आबद्ध है।
इस तरह जिन्हें हम जड़ पदार्थ और मन कहते हैं, वे दोनों एक ही वस्तु हैं। अन्तर केवल स्पन्दन की मात्रा में है। अत्यल्प गति से स्पन्दनशील मन को जड़ पदार्थ के रूप में माना जाता है। जड़ पदार्थ में जब स्पन्दन की मात्रा का क्रम अधिक होता है, तो उसे मन के रूप में जाना जाता है। दोनों एक ही वस्तु हैं, और इसलिए जब जड़ पदार्थ देश, काल तथा निमित्त के बन्धन में है, तब मन भी जो उच्च स्पन्दनशील जड़ वस्तु है, उसी नियम में आबद्ध है।
प्रकृति एकरस है। विविधता अभिव्यक्ति में है। 'नेचर' के लिए संस्कृत शब्द है प्रकृति, जिसका व्युत्पत्यात्मक अर्थ है विभेद। सब कुछ एक ही तत्व है, लेकिन वह विविध रूपों मे अभिव्यक्त हुआ है।
मन जड़ पदार्थ बन जाता है और फिर क्रमानुसार जड़ पदार्थ मन बन जाता है। यह केवल स्पन्दन की बात है।
इस्पात की एक छड़ लो और उसे इतनी पर्याप्त शक्ति से आघात करो, जिससे उसमें कम्पन आरम्भ हो जाय। तब क्या घटित होगा? यदि ऐसा किसी अँधेरे कमरे में किया जाय तो जिस पहली चीज का तुमको अनुभव होगा, वह होगी ध्वनि, भनभनाहट की ध्वनि। शक्ति की मात्रा बढ़ा दो, तो इस्पात की छड़ प्रकाशमान हो उठेगी तथा उसे और अधिक बढ़ाओ, तो इस्पात बिलकुल लुप्त हो जायगा। वह मन बन जायगा।
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