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आत्मतत्त्व
आत्मतत्त्व
प्रकाशक :
भारतीय साहित्य संग्रह |
प्रकाशित वर्ष : 2016 |
पृष्ठ :109
मुखपृष्ठ :
ईपुस्तक
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पुस्तक क्रमांक : 9677
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आईएसबीएन :9781613013113 |
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आत्मतत्त्व अर्थात् हमारा अपना मूलभूत तत्त्व। स्वामी जी के सरल शब्दों में आत्मतत्त्व की व्याख्या
प्रकृति और मानव
आजकल के लोगों की धारणा है कि प्रकृति के अन्तर्गत जगत् का केवल वही भाग आता है, जो भौतिक स्तर पर अभिव्यक्त है। साधारणत: जिसे मन समझा जाता है, उसे प्रकृति के अन्तर्गत नहीं मानते।
इच्छा की स्वतन्त्रता सिद्ध करने के प्रयास में दार्शनिकों ने मन को प्रकृति से बाहर माना है। क्योंकि जब प्रकृति कठोर और दृढ़ नियम से बँधी और शासित है, तब मन को यदि प्रकृति के अन्तर्गत माना जाय, तो वह भी नियमों में बँधा होना चाहिए। इस प्रकार के दावे से इच्छा की स्वतन्त्रता का सिद्धान्त ध्वस्त हो जाता है, क्योंकि जो नियम में बँधा-है, वह स्वतन्त्र कैसे हो सकता है?
भारतीय दार्शनिकों का मत इसके विपरीत है। उनका मत है कि सभी भौतिक जीवन, चाहे वह व्यक्त हो अथवा अव्यक्त, नियम से आबद्ध है। उनका दावा है कि मन तथा बाह्य प्रकृति दोनों नियम से, एक तथा समान नियम से आबद्ध हैं। यदि मन नियम के बन्धन में नहीं है, हम जो विचार करते हैं, वे यदि पूर्व विचारों के परिणाम नहीं हैं, यदि एक मानसिक अवस्था दूसरी पूर्वावस्था के परिणामस्वरूप उसके बाद ही नहीं आती, तब मन तर्कशून्य होगा, और तब कौन कह सकेगा कि इच्छा स्वतन्त्र है और साथ ही तर्क या बुद्धिसंगतता के व्यापार को अस्वीकार करेगा? और दूसरी ओर, कौन मान सकता है कि मन कारणता के नियम से शासित होता है और साथ ही दावा कर सकता है कि इच्छा स्वतन्त्र है?
नियम स्वयं कार्य-कारण का व्यापार है। कुछ पूर्वघटित कार्यों के अनुसार कुछ परवर्ती कार्य होते हैं। प्रत्येक पूर्ववर्ती का अपना अनुवर्ती होता है। प्रकृति में ऐसा ही होता है। यदि नियम की यह क्रिया मन में होती है, तो मन आबद्ध है और इसलिए वह स्वतन्त्र नहीं है। नहीं, इच्छा स्वतन्त्र नहीं है। हो भी कैसे सकती है? किन्तु हम सभी जानते हैं, हम सभी अनुभव करते हैं कि हम स्वतन्त्र हैं। यदि हम मुक्त न हों, तो जीवन का कोई अर्थ ही नहीं रह जायगा और न वह जीने लायक होगा।
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