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धर्म एवं दर्शन >> आत्मतत्त्व

आत्मतत्त्व

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :109
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9677
आईएसबीएन :9781613013113

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आत्मतत्त्व अर्थात् हमारा अपना मूलभूत तत्त्व। स्वामी जी के सरल शब्दों में आत्मतत्त्व की व्याख्या


दो पक्षी एक ही वृक्ष पर बैठे हैं, एक चोटी पर, दूसरा नीचे; दोनों ही अत्यन्त सुन्दर पंखोंवाले हैं। एक फलों को खाता है, दूसरा शान्त और गरिमामय तथा अपनी महिमा में समाहित रहता है। नीचेवाला पक्षी अच्छे- बुरे फल खा रहा है और इन्द्रियसुखों का पीछा कर रहा है; यदाकदा जब वह कडुआ फल खा लेता है, तो ऊँचे चढ़ जाता है और ऊपर देखता है कि दूसरा पक्षी वहाँ शान्त और गरिमान्वित बैठा है, न उसे अच्छे फलों की चिन्ता है, न बुरों की, स्वयं में सन्तुष्ट है और वह अपने से परे किसी अन्य भोग को नहीं खोजता। वह स्वयं ही भोगस्वरूप है, अपने से परे वह क्या खोजे? नीचेवाला पक्षी ऊपरवाले की ओर देखता और उसके निकट पहुँचना चाहता है। वह किंचित् ऊपर बढ़ता है, किन्तु उसके पुराने संस्कार उस पर असर डालते हैं और वह तब भी उन्हीं फलों को खाता रहता है। फिर कोई विशेष कडुआ फल आता है, उसे एक आघात लगता है और वह ऊपर देखता है। वहाँ वही शान्त और महिमामण्डित पक्षी विद्यमान है! वह निकट आता है, किन्तु प्रारब्ध कर्मों द्वारा फिर नीचे घसीट लिया जाता है और वह कडुए-मीठे फलों को खाता रहता है। पुन: असाधारण रूप से कडुआ फल आता है, पक्षी ऊपर देखता है, निकटतर आता है; और जैसे-जैसे अधिकाधिक निकट आता है, दूसरे पक्षी के पंखों का प्रकाश उसके ऊपर प्रतिबिम्बित होने लगता है। उसके अपने पंख गलने लगते हैं, और जब वह पर्याप्त निकट आ जाता है, तो सारी दृष्टि बदल जाती है। नीचेवाले पक्षी का कभी अस्तित्व ही नहीं था, वह सदैव ऊपरवाला पक्षी ही था, जिसे वह नीचेवाला पक्षी समझा था, वह प्रतिबिम्ब का एक लघु अंशमात्र था। ऐसा आत्मा का स्वरूप है।

यह जीवात्मा इन्द्रिय-सम्बन्धी सुखों और जगत् की निस्सारताओं के पीछे भागती है; पशुओं की भांति वह केवल इन्द्रियों में ही जीती है, नाड़ियों की क्षणिक गुदगुदी में जीती चली जाती है। जब कभी एक आघात लगता है, तो क्षण भर को सिर चकरा जाता है, हर वस्तु विलुप्त होती सी लगती है और उसे लगता है कि जगत् वह नहीं है, जिसे वह समझे बैठी थी, और जीवन ऐसा निर्द्वन्द्व नहीं है। वह ऊपर देखती है और एक क्षण में असीम प्रभु का दर्शन पाती है, महामहिम की एक झलक मिलती है, थोड़ा और निकट आती है, किन्तु अपने प्रारब्ध द्वारा घसीट ली जाती है। एक और आघात लगता है, और उसे पुन: वापस भेज देता है। उसे असीम सर्वव्याप्त सत्ता की एक झलक और मिलती है, वह निकटतर आती है, और जैसे-जैसे वह निकटतर आती जाती है, उसको अनुभव होने लगता है कि उसका व्यक्तित्व - उसका निम्न, कुत्सित, उत्कटस्वार्थी व्यक्तित्व  - गल रहा है; उस तुच्छ वस्तु को सुखी बनाने के लिए सारे संसार को बलि कर देने की इच्छा गल रही है; और जैसे वह शनै:-शनै: निकटतर आती जाती है, प्रकृति गलना आरम्भ कर देती है। पर्याप्त निकट आ चुकने पर, सारी दृष्टि बदल जाती है और उसे अनुभव होता है कि वह दूसरा पक्षी था, जिस असीम को उसने दूर से देखा था वह स्वयं उसकी अपनी आत्मा थी, महिमा और गरिमा की जो आश्चर्यजनक झलक उसे मिली, वह उसकी ही आत्मा थी, और वस्तुत: वह सत्य स्वयं थी। आत्मा को तब वह प्राप्त होता है, जो हर वस्तु में सत्य है। वह जो हर अणु में है, सर्वत्र विद्यमान, सभी वस्तुओं का सारतत्त्व, इस विश्व का ईश्वर है - जान लें कि तत्वमसि  - तू वह है, जान ले कि तू मुक्त है।

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