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श्रीमद्भगवद गीता - भावप्रकाशिनी

डॉ. लक्ष्मीकान्त पाण्डेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :93
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9645
आईएसबीएन :9781613015896

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गीता काव्य रूप में।


दुख पाने पर उद्विग्न न हो, सुख पाने पर जो सुखी न हो।
तज दे भय, राग, क्रोध सारा, उसको ही स्थिर बुद्धि कहो।।५६।।
शुभ फल पा न होता प्रसन्न, न कष्ट अशुभ से पाता है।
सब में रह कर आसक्त नहीं, वह स्थिर बुद्धि कहाता है।।५७।।
लेता समेट सब अंगों को, अपने भीतर जैसे कछुआ।
इन्द्रियाँ समेटे विषयों से, जो जन वह स्थिर बुद्धि हुआ।।५८।।
इन्द्रियाँ समेटे विषयों से, फिर भी रस-त्याग न हो पाता।
पर स्थिर बुद्धि वही होते, जिनमें रस-राग नहीं आता।।५९।।
कौन्तेय यत्न करते ज्ञानी, इन्द्रियाँ न हों बाहर वश से।
पर प्रबल इन्द्रियाँ उनका भी, मन हर लेतीं अपने बल से।।६०।।
इसलिए बाँध कर उन्हें प्रथम, जिनका मन मुझमें स्थित है।
इन्द्रियाँ सदा वश में रहतीं, बस उनकी बुद्धि प्रतिष्ठित है।।६१।।
विषयों का चिन्तन करने पर, उनसे लगाव हो जाता है।
आसक्ति काम की जननी है, यह काम क्रोध उपजाता है।।६२।।
करता है क्रोध मूढ़ जन को, मोही की स्मृति रहे भ्रष्ट।
स्मृति विनाश से बुद्धि नाश, जब बुद्धि विकल तो सभी नष्ट।।६३।।
तज राग-द्वेष, इन्द्रिय वश में कर, यदि होता है विषय लीन।
वह ही प्रसन्नता पाता है, आत्मा के वश में जो प्रवीण।।६४।।
ऐसे आनन्द लीन जन के, सब दुःख विनष्ट हो जाते हैं।
परमात्मा में प्रज्ञा स्थित, वे ही प्रसन्न कहलाते हैं।।६५।।
न संयम बिना बुद्धि होती, न जगता है कर्त्तव्य भाव।
कर्त्तव्य बिना न शांति मिले, ना शांति कहाँ सुख से जुडाव।।६६।।
इन्द्रिय के वश में रह करके, मन सब कुछ हर लेता वैसे।
है पवन तिरोहित कर देता, जल में तिरती नौका जैसे।।६७।।
हे महाबाहु, इन्द्रियाँ अगर, विषयों से हुयी निवर्तित हैं।
इन्द्रियाँ सदा वश में जिसकी, उसकी ही बुद्धि प्रतिष्ठित है।।६८।।
सब प्राणी सोते निशा समझ, तब जागा करते योगीजन।
जग में जीवों की जागृति जो, उसको ही रात्रि कहें मुनिगन।।६९।।
जैसे समुद्र नदियों का जल, ले अचल रहे, त्यों भोग ग्रहण।
करता जो त्याग कामना का, वह परम शांति को करे वरण।।७०।।
जिनमें कोई कामना नहीं, जो निर्मम निरहंकारी हैं।
निस्पृह हो जो विचरण करते, बस वही शांति-अधिकारी हैं।।७१।।
अर्जुन यह ही ब्राह्मी स्थिति, इससे जन होते मोहमुक्त।
यदि अन्त समय यह भाव जगे तो भी नर होता ब्रह्मयुक्त।।७२।।

इति दूजा अध्याय यह, प्रकट सांख्य का योग।
मिले शांति बन्धन कटे, मिटें सभी भव-रोग।।
फल तो मेरे हाथ में, जीव करे बस कर्म।
फल ही यह संसार है, त्याग योग का मर्म।।

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