ई-पुस्तकें >> श्रीमद्भगवद गीता - भावप्रकाशिनी श्रीमद्भगवद गीता - भावप्रकाशिनीडॉ. लक्ष्मीकान्त पाण्डेय
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गीता काव्य रूप में।
।। ॐ श्रीपरमात्मने नमः।।
अथ तीसरा अध्याय : कर्म योग
अर्जुन फिर भ्रम में पड़े, किसमें करें निवेश।।
ज्ञान-कर्म में श्रेष्ठ क्या, अर्जुन करें विचार।
संशय हरने के लिए, कहा कर्म-विस्तार।।
अर्जुन बोले, यदि ज्ञान श्रेष्ठ कर्मों से आप बताते हो।
केशव, फिर घोर कर्म में क्यों प्रेरित कर मुझे लगाते हो।।१।।
इन दुहरी बातों से माधव, हो गयी बुद्धि मेरी मोहित।
जिससे मैं श्रेयस प्राप्त करूँ, वह एक राह कहिए-निश्चित।।२।।
प्रभुवर बोले, अर्जुन जग में दो निष्ठा कह दी जीवन की।
ज्ञानी की निष्ठा ज्ञानयोग, है कर्मयोग में योगी की।।३।।
इन कर्मों के आरम्भ बिना, होती है स्थिर बुद्धि नहीं।
केवल कर्मों का त्याग करे, इससे मिलती है सिद्धि कहीं।।४।।
कोई क्षण ऐसा न जाता, जिसमें होता है कर्म नहीं।
नैसर्गिक कर्म हुआ करते, है परवशता का मर्म यही।।५।।
तन तो कर्मों से विरत बने, मन से विषयों का ही चिन्तन।
वह मूढ़ बुद्धि, मिथ्याचारी कहलाता है, बोले मोहन।।६।।
पर यदि इन्द्रियाँ नियंत्रित हैं, मन में होवे निष्काम भाव।
वह श्रेष्ठ पुरुष कहलाता है, जो कर्म निरत, पर न लगाव।१७३।
कर्मों का त्याग नहीं करना, जो नियत कर्म-पथ उस पर चल।
यदि कर्म विरत हो जाओगे, कैसे शरीर यह सकता पल।।८।।
यज्ञार्थ कर्म को त्याग, विषय रत कर्म करे मिलता बन्धन।
तुम निरासक्त हो कर्म करो, कर्त्तव्यों का हो संवर्धन।।९।।
जब सृष्टि रची थी ब्रह्मा ने, तब सब जीवों से यही कहा।
कर्त्तव्य कर्म तुम लोग करो, इच्छित फल सबको मिले अहा।।१०।।
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