ई-पुस्तकें >> श्रीमद्भगवद गीता - भावप्रकाशिनी श्रीमद्भगवद गीता - भावप्रकाशिनीडॉ. लक्ष्मीकान्त पाण्डेय
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गीता काव्य रूप में।
इस कर्मयोग में धीर पुरुष, रखते नित अपनी बुद्धि निरत।
नाना राहों में वे भटकें, जो चंचल मूढ़ पुरुष अविरत।।४१।।
कर्मों को सबसे श्रेष्ठ मान, जो बढ़ा-चढ़ा बतलाते हैं।
जो वेदवाद में ही रत हैं, अज्ञानी वे कहलाते हैं।।४२।।
माना करते जो स्वर्ग श्रेष्ठ, कर्मों के फल से जन्म यहाँ।
ऐश्वर्य, स्वर्ग के लिए सभी जग में आ करते कर्म यहाँ।।४३।।
इस वेद वचन से मोहित हो, जो कर्मों में ही जा फँसता।
दृढ़ बुद्धि नहीं होती उनकी, प्रभु में फिर ध्यान नहीं रमता।।४४।।
इन भोगादिक ऐश्वर्यों को, वेदों ने सदैव कहा त्रिगुण।
तज योगक्षेम, सब द्वन्द्व, सत्वरत, आत्मवान बन हो निर्गुण।।४५।।
पोखर की हो परवाह किसे, जब जल को मिला महासागर।
वैदिक कर्मों में कौन रमे, जब प्राप्त हो गया परमेश्वर।।४६।।
फल की इच्छा मत कभी रखो, अधिकार जीव का कर्मों पर।
न बनो कर्म फल के कारण, निष्काम कर्म हे अर्जुन कर।।४७।।
भारत असंग हो सम समझो सुख दुःख को हानि लाभ को भी।
समभावयोग यह कहलाता, सब कर्म करो बन कर योगी।।४८।।
लो शरण योग की गुडाकेश, होते हैं क्षुद्र सकाम कर्म।
फल की इच्छा से कर्म करें, वे दीन जानते नहीं मर्म।।४९।।
सम बुद्धि योग में लीन पुरुष, पापों पुण्यों से पृथक् रहे।
इसलिए योगरत हो भारत, यह योग कर्म का कौशल है।।५०।।
समबुद्धि भाव वाले ज्ञानी, रत कर्म, नहीं फल से लगाव।
करके विनष्ट बन्धन सारे, जा परमधाम पा परमभाव।।५१।।
इस महामोह के दलदल से, जब बुद्धि पार हो जायेगी।
परलोक लोक के भोगों की आशा न तुझे सतायेगी।।५२।।
नाना मतवादों में बँध कर, रहती है सदा बुद्धि चंचल।
अर्जुन तुम तब योगी होगे, जब प्रभु में लगे समाधि अचल।।५३।।
अर्जुन बोले-प्रभु, समझाओ फिर थिर समाधि के क्या लक्षण।
कैसे प्राणी वे, जग में है-बोलना, बैठना, संचारण।।५४।।
हे पृथा पुत्र, जो धीर पुरुष तज दे मन की सब इच्छायें।
नित आत्मा में ही लीन रहे वह स्थित प्रज्ञ कहा जाये।।५५।।
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