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श्रीमद्भगवद गीता - भावप्रकाशिनी

डॉ. लक्ष्मीकान्त पाण्डेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :93
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9645
आईएसबीएन :9781613015896

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गीता काव्य रूप में।


मानते अगर तुम इसे पार्थ, नित जन्म-मृत्यु के बन्धन में।
तब भी तुम करते शोक व्यर्थ, इसका रहस्य समझो मन में।।२६।।
जो जन्मा निश्चय मरे, और मर कर फिर जन्मे नीति अटल।
जो होने वाला है होगा, फिर शोक ग्रस्त क्यों हो प्रतिपल।।२७।।
ना जन्म-पूर्व ये साथी थे, मरने के बाद नहीं होंगे।
बस इस जीवन के मध्य मिले, चिन्ता करके क्या पाओगे।।२८।।
देखता अचंभे से कोई, कहते हैं कुछ यह अचरज से।
सुनता है कोई हो विमूढ़, पर समझ न पाते हैं ऐसे।।२९।।
सबके शरीर में हे अर्जुन, यह आत्मा ही बच रहता है।
यह सदा अमर, सब में रह कर, फिर व्यर्थ शोक क्यों करता है।।३०।।
यदि अपना धर्म देखता है, तो भी भय की कुछ बात नहीं।
क्षविय का धर्म युद्ध होता, कर्तव्य तुम्हें क्या ज्ञात नहीं?।।३१।।
यह अपने आप मिला तुमको, जो स्बर्ग द्वार कहलाता है।
है यही धनंजय धर्म युद्ध, जो भाग्यवान नर पाता है।।३२।।
इस क्षात्र-धर्म के पालन में यदि पीछे तुम हट जाओगे।
निज धर्म छोड़, अपयश पाकर, बस पापी ही कहलाओगे।।३३।।
युग-युग तक लोग कहेंगे यह, होगी इससे जो कीर्ति नष्ट।
सत्पुरुषों ने भी कहा यही, अपकीर्ति मृत्यु से बड़ा कष्ट।।३४।।
मानेंगे तुमको तुच्छ वही, सम्मान मिल रहा था जिनसे।
ये महारथी यह समझेंगे, भारत भागा भयवश रण से।।३५।।
ये शत्रु तुम्हारे बल की फिर इस भाँति करेंगे निन्दा तब।
दुःख उससे अधिक मिलेगा क्या, कटु वचन सुनावेंगे वे जब।।३६।।
उठ विजय प्राप्त कर राज्य भोग, या स्वर्ग प्राप्त कर रण में मर।
अब लड़ने का दृढ़ निश्चय कर, तुम उठो धनंजय, हो तत्पर।।३७।।
जय और पराजय, हानि-लाभ, सुख-दुःख इनमें समता रख कर।
पापी न तुम कहलाओगे, होगे जब युद्ध हेतु तत्पर।।३८।।
अब तक बतलाया सांख्य-योग, सुनिए अब कर्म योग मुझसे।
यह जान छूट जाते ज्ञानी, हे पार्थ, कर्म के बन्धन से।।३९।।
इस कर्मयोग से बीज-नाश, फिर कोई पाप न हो पाता।
सीमित साधन भी यदि कर ले, न जन्म-मृत्यु से हो नाता।।४०।।

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